एबीएन एडिटोरियल डेस्क। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने शताब्दी वर्ष का उत्सव मना रहा है। समाज में संगठन के योगदान और उसके अनुशासन, सेवा व राष्ट्रभाव की भावना को लेकर देशभर में कार्यक्रम आरंभ हुए हैं। लेकिन अभी इस उत्सव की गूंज शुरू ही हुई कि कर्नाटक की राजनीति में एक नया विवाद उठ खड़ा हुआ है। राज्य सरकार के मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे प्रियांक खरगे ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को एक पत्र लिखकर सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, पार्कों और मंदिरों में आरएसएस की शाखाओं और कार्यक्रमों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग की है।
चार अक्टूबर को लिखे गए इस पत्र को मुख्यमंत्री कार्यालय ने 12 अक्टूबर को सार्वजनिक किया। सिद्धारमैया ने मुख्य सचिव शालिनी राजनिश को पत्र भेजकर मामले की जांच और आवश्यक कार्रवाई के निर्देश दे दिये हैं। इससे साफ हो गया कि कर्नाटक सरकार अब संघ के विरुद्ध सख्त रुख अपनाने की तैयारी में है।
प्रियांक खरगे का आरोप है कि आरएसएस सरकारी व सहायता प्राप्त संस्थानों में बिना अनुमति शाखाएं चला रहा है, जहां लाठी लेकर नारेबाजी की जाती है और बच्चों के दिमाग में नफरत भरी जाती है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि ये गतिविधियां संविधान की भावना और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ हैं, इसलिए इन पर तत्काल रोक लगायी जाये।
दरअसल, ये पहली बार नहीं जब प्रियांक ने ऐसा बयान दिया हो। जुलाई 2025 में उन्होंने कहा था कि अगर कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आयी तो कानूनी प्रक्रिया के तहत पूरे देश में आरएसएस पर प्रतिबंध लगायेगी। उस वक्त भी भाजपा ने इसे हिंदू-विरोधी मानसिकता का प्रतीक बताया था। अब वही विचार कर्नाटक में सरकारी दस्तावेज का रूप लेता दिख रहा है।
इस संबंध में उल्लेखित है कि आरएसएस का इतिहास इस बात का गवाह है कि प्रतिबंधों ने इसे कमजोर नहीं किया, यह ऐसे कठिन दौर में अत्यधिक संगठित रूप में ही लोगों के सामने आया है। आपको बतादें कि संघ पर पहला प्रतिबंध (1948): महात्मा गांधी की हत्या के बाद। नाथूराम गोडसे के कथित संबंध के नाम पर 4 फरवरी 1948 को बैन लगाया गया था, लेकिन 18 महीने बाद जांच में संघ निर्दोष पाया गया और 12 जुलाई 1949 को बैन हटा। दूसरा प्रतिबंध (1975) में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में लगा।
उस दौरान आरएसएस को अवैध घोषित किया गया, हजारों स्वयंसेवक जेल में ठूंस दिये गये, लेकिन इमरजेंसी खत्म होते ही संघ पहले से अधिक सक्रिय रूप में लौटा और जनसंघ-जनता पार्टी के पुनर्गठन में निर्णायक भूमिका निभाई। तीसरा प्रतिबंध (1992) में बाबरी विध्वंस के बाद पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने आरएसएस, विहिप और बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाया, जो 1993 में अदालत से हट गया क्योंकि कोई ठोस सबूत नहीं मिला।
हर बार संघ ने शांतिपूर्ण तरीके से जवाब दिया। उसने कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया, बल्कि समाज सेवा और राष्ट्रनिर्माण के कार्यों से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चीन युद्ध से लेकर कोविड महामारी तक, हर संकट में संघ के स्वयंसेवक देश के आम जन की सेवा करते हुए और उन्हें हर संभव मदद पहुंचाते हुए ही नजर आये हैं। वे राहत कार्यों में अग्रिम पंक्ति में रहते हैं। ऐसे में ये सवाल स्वाभाविक तौर पर उठता है कि क्या कर्नाटक सरकार सचमुच संवैधानिक आधार पर कदम उठा रही है या फिर यह एक वैचारिक द्वेष से प्रेरित राजनीतिक रणनीति है?
सोशल मीडिया पर पिछले कुछ दिनों से #बैन आरएसएस ट्रेंड कर रहा है। वामपंथी संगठनों, सेकुलर लॉबी और इस्लामी कट्टरपंथी समूहों से जुड़े कई हैंडल इस अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। आरोप वही पुराने हैं; फासीवाद, संघी मानसिकता, हिंदू राष्ट्रवाद। दिलचस्प यह है कि इसी दौरान कुछ निष्क्रिय या प्रतिबंधित संगठनों से जुड़े लोग भी इस मुहिम को हवा दे रहे हैं। जिस तरह यह ट्रेंड संगठित तरीके से फैलाया गया है, वह यह संकेत देता है कि यह केवल प्रियांक खरगे का व्यक्तिगत विचार नहीं बल्कि एक सुविचारित वैचारिक मोर्चा है।
संघ की शाखाएं वर्षों से सार्वजनिक स्थानों पर लगती रही हैं; स्कूल के मैदान, पार्क या मंदिर परिसर, जहां न तो राजनीति होती है और न ही कोई प्रचार। वहां अनुशासन, योग, देशभक्ति और समाज सेवा की भावना सिखाई जाती है। फिर भी इन्हें निशाने पर लेना बताता है कि समस्या गतिविधियों से नहीं, विचार से है। संघ की विचारधारा सर्वे भवन्तु सुखिन: के साथ ही एकता और आत्मगौरव की भावना जगाती है। यही वह विचार है जो विभाजित राजनीति के लिए सबसे बड़ा खतरा बनता हुआ दिखाई देता है। कर्नाटक में कांग्रेसी सरकार का ये कदम बता रहा है कि कांग्रेस और वामपंथी तबके को संघ की सामाजिक पकड़ असहज करती है। जबकि संघ न तो चुनाव लड़ता है, न सत्ता की होड़ करता है। उसकी ताकत आम जन से सीधे संवाद और समाज सेवा से आती है, जो राजनीति से परे है।
दरअसल, कर्नाटक में कांग्रेस सरकार इस समय कई मोर्चों पर घिरी है, बढ़ते महिला अपराध, बिजली संकट, पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार, और डीके शिवकुमार व सिद्धारमैया के बीच नेतृत्व संघर्ष जैसी चुनौतियां सामने हैं। ऐसे में आरएसएस पर बैन का मुद्दा सरकार के लिए ध्यान भटकाने का उपकरण बनता दिख रहा है।
यहां आरएसएस का प्रभाव इस तथ्य से स्पष्ट है कि उसने अनुसूचित जाति, जनजाति, दलित, पिछड़े और महिलाओं को जोड़ने में उल्लेखनीय काम किया है। समरसता अभियान, सेवा भारती, विविध शिक्षण संस्थान और वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठनों के जरिए संघ ने समाज के उस हिस्से तक पहुंच बनायी, जहां राजनीति कभी नहीं पहुंच सकी। यही कारण है कि संघ के विरुद्ध जब भी राजनीतिक बवंडर उठता है, वह वैचारिक रूप से कमजोर पड़ जाता है। संघ की शाखाएं किसी पार्टी का मंच नहीं है, यह तो राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशाला हैं।
कर्नाटक में यदि सरकारी आदेशों के जरिए संघ की शाखाओं या गतिविधियों पर रोक लगाने की कोशिश होती है, तो यह लोकतंत्र के मूलाधारों पर चोट होगी। संघ कोई अवैध संगठन नहीं, बल्कि भारत के संविधान के तहत एक सामाजिक संगठन है। ऐसे में प्रशासनिक दबाव डालकर उसकी गतिविधियां रोकना अघोषित आपातकाल जैसा कदम माना जायेगा। इसे सेकुलरिज्म के नाम पर वैचारिक आतंक कहा जा सकता है; जहां असहमति को देशद्रोह और राष्ट्रवाद को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है।
इतिहास यही कहता है कि जब भी संघ को दबाने की कोशिश हुई, जनता ने उसे और अपनाया। यह संगठन सत्ता या विरोध से नहीं, समाज की स्वीकृति से जीवित है। कर्नाटक में यदि कांग्रेस यह मानती है कि वैचारिक दमन से संघ को कमजोर किया जा सकता है, तो यह वही भूल दोहराना होगा जो 1948, 1975 और 1992 में की जा चुकी है। यदि किसी लोकतांत्रिक राज्य में समाज सेवा करने वाले संगठन को खतरा मान लिया जाए, तो यह लोकतंत्र की पराजय होगी, न कि उसकी सुरक्षा। संघ का सौ साल का इतिहास भी यही गवाही देता है कि जो संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत की आत्मा से जुड़ा है, उसे कोई राजनीतिक तूफान मिटा नहीं सकता है। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
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