एबीएन एडिटोरियल डेस्क। पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद के भरतपुर से टीएमसी विधायक हुमायूं कबीर पश्चिम बंगाल में बाबरी नाम से मस्जिद बनाने का दावा कर रहे हैं। हालांकि उनकी इस जिद के कारण से टीएमसी से उन्हें हाल ही में पार्टी से बाहर निकाला है, पर समस्या अभी समाप्त नहीं हुई है। उनके समर्थकों ने मुर्शिदाबाद में कई जगहों पर बाबरी नाम से मस्जिद बनाने के पोस्टर भी लगाए हैं।
बात अब उस अस्मिता की है जिसमें सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि आखिर मुसलमान बाबर के नाम की माला क्यों जप रहे हैं, जबकि भारत एक पंथ निरपेक्ष देश है, जिसमें किसी भी अत्याचारी, हिंसा करनेवाले आततायी के लिए कोई जगह नहीं है। वैसे कोई भी मस्जिद बनाने के लिए स्वतंत्र है, किंतु प्रश्न यही है कि इसके बाद भी बाबर के नाम पर इस देश में मस्जिद क्यों मुसलमान बनाना चाहते हैं। हुमायूं आज जो कह रहे हैं उस पर भी सभी को गौर करना चाहिए, वे कहते हैं, नाम पर आपत्ति कैसे है?
अगर मेरा बेटा पैदा हो तो मैं उसका क्या नाम रखूं, ये बताने वाले दूसरे कौन होते हैं। ये मेरे कौम का मामला है। कौम के लोग मदद कर रहे हैं। बात एक दम साफ है, कौम के लोग मदद कर रहे हैं, इसलिए ये बाबर के नाम की फिर से मस्जिद भारत में बनायी जा रही है। वस्तुत: इतिहास में दर्ज घटनाएं उन तारीखों से नहीं मिटाई जा सकती जो बाबर के क्रूर अत्याचार की कहानी कहती हैं। भारत के इतिहास में अनेक आक्रांताओं ने आकर यहां के समाज, संस्कृति और परंपराओं पर गहरे घाव छोड़े हैं, परंतु जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का नाम उनमें सबसे प्रमुख रूप रहा है।
बाबर को लेकर जो वर्ग उसे एक आदर्श या गौरवपूर्ण चरित्र के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता है, उसे एक बार उन तमाम प्रामाणिक इतिहास, विशेषकर बाबर की आत्मकथा बाबरनामा, गुलबदन बेगम का हुमायूंनामा और अनेक स्वतंत्र इतिहासकारों के विवरण जरूर देखने चाहिए। यह सभी स्पष्ट करते हैं कि बाबर एक ऐसा विदेशी आक्रांता था जो भारत में सत्ता, लूट और धार्मिक (इस्लामिक) वर्चस्व स्थापित करने आया था। उसकी नीतियां, उसके सैन्य अभियान और उसकी मानसिकता का केंद्र बिंदु विरोध करने वाले काफिरों का विनाश और धन की लूट थी।
बाबर का भारत पर आगमन उसके युद्ध केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा तक सीमित नहीं थे। बाबर स्वयं अपने फतहनामे में लिखता है कि इस्लाम की खातिर जंगलों में भटका, हिंदुओं और मूर्तिपूजकों से युद्ध का संकल्प लिया और अंतत: गाजी बना। यह कथन स्पष्ट संकेत देता है कि बाबर का अभियान धार्मिक इस्लामिक, जिहादी कट्टरता से प्रेरित था। खानवा की लड़ाई में राणा सांगा पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने स्वयं को गाजी घोषित किया, एक ऐसी उपाधि जिसका अर्थ है अन्य मत के अनुयायियों को मारने वाला।
यह गौरवपूर्ण उपलब्धि नहीं है, यह तो हिंसा की मानसिकता की स्वघोषित स्वीकारोक्ति है। बाबर जहां-जहां गया, वहां उसने अपनी क्रूरता के निशान छोड़े। हुमायूंनामा में गुलबदन बेगम का वर्णन बाजौर के किले पर हुए उसके हमले का है, जिसमें लिखा है कि बाबर ने दो-तीन घड़ी में दुर्ग जीतकर सभी निवासियों को मरवा दिया क्योंकि वहां कोई मुसलमान नहीं था। यह कोई युद्ध नीति नहीं कही जा सकती, यह तो गैर मुसलमानों के प्रति धार्मिक असहिष्णुता का भयानक उदाहरण है।
यही नहीं, बाबर के आदेश पर या उसके सेनापतियों की कार्रवाई से अनेक मंदिर ध्वस्त किये गये। संभल में मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित किया गया, चंदेरी में मंदिर तोड़े गये और उरवा के जैन मंदिरों का विनाश किया गया। अयोध्या में राम जन्मभूमि पर निर्मित प्राचीन मंदिर को उसके सेनापति मीर बाकी ने उसके आदेश पर ध्वस्त कर दिया और उसी स्थान पर मस्जिद बनायी।
इतिहासकार सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक Hindu Temples: What Happened to Them? में इन विध्वंसों को प्रमाणों सहित प्रस्तुत किया है और यह दिखाया है कि बाबर मंदिरों को नष्ट करता ही था और स्वयं इस विनाश को अपने शासन का हिस्सा मानता था। मोहन मुन्दाहिर की घटना बाबर की क्रूरता का एक और प्रमाण है। बाबरनामा के अनुसार, एक काजी की शिकायत पर बाबर ने अली कुली हमदानी को तीन हजार सैनिकों के साथ भेजकर प्रतिशोध की कार्रवाई करवाई।
इसमें लगभग एक हजार हिंदू मारे गये और इतने ही स्त्री-पुरुष और बालक बंदी बनाये गये। यह कोई सैन्य संघर्ष नहीं था, सीधे तौर पर प्रतिशोध की हिंसा थी। बाबर ने मृतकों के कटे हुए सिरों की मीनार बनवायी जो उस समय की मुगल परंपरा में क्रूरता का प्रतीक थी। बंदी बनाए गए हिन्दू लोगों की स्त्रियों को सैनिकों में बांट दिया गया और मोहन मुन्दाहिर को जमीन में गाड़कर तीरों से मार डाला गया। यह दृश्य अपने आप में बहुत कुछ कह देता है, यह कोई विजय का उत्सव नहीं कहा जा सकता है, यह तो अमानवीय अत्याचार का घोर प्रमाण है।
1527 और 1528 के उसके अभियान, विशेषकर राणा सांगा और मेदिनीराय के विरुद्ध, भारतीय इतिहास पर गहरी चोट हैं। चंदेरी के युद्ध के बाद वहां की रानी मणिमाला और लगभग 1600 महिलाओं ने जौहर कर लिया, ताकि वे मुगल सेना के अत्याचारों का शिकार न बनें। कहना होगा कि बाबर का भारत से स्वाभाविक, सांस्कृतिक या भावनात्मक कोई संबंध नहीं था। वह फरगना का निवासी था। भारत उसके लिए मजहबी (धार्मिक) और सैन्य विजय का केंद्र था।
उसने भारत में अपने चार वर्ष के शासन के दौरान सिर्फ लूट, सत्ता विस्तार और गैर मुसलमानों पर घोर अत्याचार, हिंसा की। उसने कोई निर्माण कार्य, प्रशासनिक सुधार या सांस्कृतिक योगदान नहीं दिया जिसके आधार पर उसे भारतीय इतिहास में एक आदर्श शासक माना जा सके। उसका शासन विनाश, लूट और सांप्रदायिक द्वेष की घटनाओं से भरा हुआ है। वस्तुत: भारत में मस्जिदों के निर्माण पर कोई आपत्ति नहीं, किंतु बाबर जैसे आक्रमणकारी के नाम पर मस्जिद का नाम रखना ऐतिहासिक और नैतिक दोनों स्तरों पर अनुचित है।
सम्मान उन व्यक्तियों का होना चाहिए जिन्होंने मानवता, सहिष्णुता और सभ्यता के लिए कार्य किया हो, न कि उन लोगों का जिन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा में नरसंहार और मंदिरों के विध्वंस का बखान किया हो। इस दृष्टि से देखा जाए तो बाबर का बचाव करना, उसे आदर्श बताना या उसकी स्मृति में निर्मित ढांचों को सम्मानजनक स्थान देना एक प्रकार से भारत की सभ्यता, इसकी ऐतिहासिक पीड़ा और इसकी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति संवेदनहीनता का परिचायक है। यह स्पष्ट है कि भारत जैसे बहु सांस्कृतिक और बहु धार्मिक देश में किसी भी समुदाय के पूजा स्थलों का विरोध नहीं किया जा सकता, परंतु यह भी उतना ही स्पष्ट है कि किसी ऐसे व्यक्ति का सम्मान करना जिसने मानवता और भारतीय समाज पर आघात किया, वास्तव में राष्ट्रीय चेतना के विरुद्ध है।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। 1997 के आसपास पश्चिम में किये गये एक अध्ययन में पता चला कि फॉर्च्यून 500 कंपनियों का औसत जीवनकाल 40-50 वर्ष से कम है। 1970 में सूचीबद्ध फॉर्च्यून 500 कंपनियों में से एक-तिहाई 1983 तक लुप्त हो चुकी थीं और सभी नवगठित कंपनियों में से 40% दस वर्ष से भी कम समय तक चलीं। आईआईएम बैंगलोर के एक अध्ययन के अनुसार, इन व्यवसायों में प्रबंधकों को अत्यधिक तनाव, प्रभुत्व और नियंत्रण के लिए संघर्ष, निराशावाद और ऐसे कार्य वातावरण का सामना करना पड़ता है जो मानवीय कल्पना/ रचनात्मकता, जीवन शक्ति और प्रतिबद्धता को दबा देता है।
जीवन की समग्र गुणवत्ता और कार्य जीवन के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। संगठनात्मक स्थिरता और पर्यावरण पर इसका प्रभाव एक प्रमुख चिंता का विषय बना हुआ है। प्रबंधक और अधिकारी अक्सर इस बात से सहमत होते हैं कि हाल के दशकों में प्रबंधन में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है। कार्य और जीवन को एक साथ लाने के लिए, व्यक्ति की आंतरिक स्वतंत्रता और स्थिति बाहरी दुनिया के साथ सामंजस्य में होनी चाहिए।
शरीर के सामंजस्य और स्वस्थ स्वास्थ्य के लिए, तीनों गुणों (सत्व, रज और तम) का समन्वय आवश्यक है, क्योंकि असंतुलन व्यक्ति को शारीरिक या मानसिक रूप से अस्वस्थ कर सकता है। परिणामस्वरूप, व्यक्तित्वों के बीच आंतरिक संतुलन की आवश्यकता होती है, जिसे बाहरी स्वास्थ्य के संदर्भ में देखा जा सकता है। हालांकि, आंतरिक शांति तभी प्राप्त हो सकती है जब हमारे बाहरी संबंध संतुलित हों।
किसी व्यक्ति के बाह्य वातावरण में प्रकृति (अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश), जलवायु परिस्थितियां, दूसरों के साथ संबंध और श्रम जैसे तत्व शामिल होते हैं। भगवद्गीता के अनुसार, जीवन ब्रह्मांडीय और व्यक्तिगत ऊर्जाओं के बीच सतत संघर्ष है। सत्व गुण की उच्च मात्रा आंतरिक और बाह्य संतुलन को बढ़ावा देती है, जिसके परिणामस्वरूप आनंद, हर्ष और खुशी की अनुभूति होती है। तमस गुण का उच्च स्तर व्यक्ति के बाहरी दुनिया के साथ संबंधों को बिगाड़ सकता है और इसके परिणामस्वरूप आनंद की कमी, पीड़ा और दु:ख हो सकता है।
तीसरा गुण, तमस, उदासीनता का प्रतिनिधित्व करता है। कर्म के प्रति प्रतिरोध मृत्यु, विनाश और हानि जैसे नकारात्मक परिणामों की ओर ले जाता है। भगवद्गीता और अन्य शास्त्र उन लोगों के लिए उपलब्ध हैं जिनके पास तर्क और अंतर्दृष्टि है। ये प्राचीन शास्त्र प्रबंधकों को कार्य और गृहस्थ जीवन के संतुलन के लिए आसान और प्रभावी समाधान प्रदान करते हैं, जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।
भगवद् गीता को कर्मचारी की कार्यकुशलता और प्रभावशीलता में सुधार लाने के लिए एक व्यापक मार्गदर्शिका माना जाता है, जो व्यक्ति की कमजोरियों को ताकत में बदलने, जिम्मेदारियों को साझा करने, टीम में सही व्यक्ति का चयन करने, नौकरी के माहौल में चुनौतियों के बारे में जागरूक होने, दुविधाओं में प्रेरित करने, ऊर्जा देने और परामर्श देने वाले करिश्माई नेताओं की आवश्यकता और जमीनी हकीकत का ज्ञान शुरू करने जैसे विचारों का प्रसार करती है। भगवद् गीता विचारों और कार्यों, लक्ष्यों और सफलता, योजनाओं और उपलब्धियों, उत्पादों और बाजारों के माध्यम से कार्य संतुलन में सामाजिक समझौता प्राप्त करती है।
इस पवित्र ग्रंथ में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश शामिल हैं, जो एक महत्वपूर्ण वास्तविकता को उजागर करते हैं जो आधुनिक कार्यस्थल संबंधों के लिए प्रासंगिक है। आजकल कई पेशेवर महत्वपूर्ण परिस्थितियों में ठिठक जाते हैं, जैसे अर्जुन अपने कर्तव्य के आगे ठिठक गये थे। उनका युद्धक्षेत्र केवल एक भौतिक स्थल नहीं था; यह कार्यस्थल की अंतिम दुविधा का प्रतिनिधित्व करता था, जहां व्यक्तिगत आदर्श पेशेवर प्रतिबद्धताओं से टकराते थे।
अर्जुन के लक्षण आधुनिक मनोविज्ञान में तीव्र तनाव प्रतिक्रियाओं से मेल खाते हैं: मेरे शरीर के अंग कांप रहे हैं और मुंह सूख रहा है, पूरा शरीर कांप रहा है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, और त्वचा पूरी तरह जल रही है। अधिकारी उच्च-दांव वाले निर्णय लेते समय समान शारीरिक लक्षणों की रिपोर्ट करते हैं- मनोवैज्ञानिक तनाव के प्रति शारीरिक प्रतिक्रियाएं जो निर्णय लेने की क्षमता को कमजोर कर देती हैं।
अपनी नौकरी में कर्म योग का उपयोग कैसे करें? आधुनिक कंपनियों को कर्म योग को लागू करने के लिए यथार्थवादी रणनीतियों की आवश्यकता होती है। पुरस्कारों से ज्यादा उत्कृष्ट कार्य को प्राथमिकता दें। भावनाओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, ऐसी प्रस्तुतियां दें जो मूल्य और स्पष्टता प्रदान करें। अपने रोजगार को व्यक्तिगत लाभ से परे एक सेवा के रूप में देखें। यह दृष्टिकोण नियमित कामकाज को उद्देश्य प्रदान करता है।
भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के अनुसार, योग: कर्मसु कौशलम् कर्म के कौशल का प्रतीक है। आपके द्वारा किए जाने वाले हर कार्य में उत्कृष्टता झलकनी चाहिए, चाहे आपको कितनी भी प्रशंसा मिले। प्रशंसा और आलोचना दोनों प्राप्त करते समय संतुलित दृष्टिकोण बनाये रखें। इनमें से कोई भी आपकी योग्यता निर्धारित नहीं करता।
भगवद्गीता एक प्राचीन भारतीय साहित्य है जिसमें एक सार्थक और संपूर्ण जीवन जीने के बारे में प्रचुर ज्ञान समाहित है। गीता व्यक्ति के धर्म या जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने की आवश्यकता पर बल देती है। इस धारणा को प्रबंधकीय कार्य में कई तरह से लागू किया जा सकता है।
पहला, अपने धर्म को जानना और उसका पालन करना प्रबंधकों को अपनी टीम या व्यवसाय के लिए स्पष्ट लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित करने में सहायता कर सकता है, जो प्रबंधक अपनी गतिविधियों को एक उच्च उद्देश्य के साथ जोड़ते हैं, वे अपनी टीम से अधिक समर्पण और प्रतिबद्धता को प्रेरित कर सकते हैं। इसके अलावा, प्रबंधक इस ध्यान का उपयोग व्यापक हित को ध्यान में रखते हुए कठिन निर्णय लेने के लिए कर सकते हैं।
दूसरा, योग और ध्यान पर भगवद्गीता की शिक्षाएं प्रबंधकों को अधिक आत्म-जागरूकता और भावनात्मक बुद्धिमत्ता प्राप्त करने में सहायता कर सकती हैं। ये रणनीतियां प्रबंधकों को तनावपूर्ण परिस्थितियों में अपनी भावनाओं को नियंत्रित करना और अपने कर्मचारियों की आवश्यकताओं और प्रेरणाओं को बेहतर ढंग से समझना सीखने में मदद कर सकती हैं। अंत में, भगवद्गीता दूसरों की सेवा के महत्व पर प्रकाश डालती है।
इस धारणा को प्रबंधन में एक ऐसी कंपनी संस्कृति को बढ़ावा देकर लागू किया जा सकता है जो समाज को वापस देने पर जोर देती है। उदाहरण के लिए, प्रबंधक कर्मचारियों से अपना समय स्वेच्छा से देने या धर्मार्थ संगठनों को धन और समय दान करने का आग्रह कर सकते हैं। प्रबंधक कार्यस्थल में करुणा का दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं, जिससे यह अधिक प्रसन्न और उत्पादक बन सकता है।
गीता कहती है, सबसे बुनियादी विचारों में से एक पृथक्करण है। एक प्रबंधक को अपनी गतिविधियों के परिणामों से खुद को अलग करने में सक्षम होना चाहिए और उनसे जुड़ा नहीं होना चाहिए। इससे वह योजना के अनुसार काम न होने पर निराश या हताश होने के बजाय अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने पर ध्यान केंद्रित कर पाता है। अनासक्ति बेहतर निर्णय लेने में भी सक्षम बनाती है क्योंकि यह भावनाओं या परिणामों से अप्रभावित रहती है।
भगवद् गीता का सारांश दशार्ता है कि अनासक्ति विकसित करने का अर्थ काम की परवाह न करना नहीं है। इसके बजाय, यह हमारी सोच में बाधा डालने वाले भावनात्मक अवरोधों को दूर करके हमारी उत्पादकता में सुधार करता है। कृष्ण कहते हैं कि निरंतर ज्ञान वाला व्यक्ति इंद्रिय तृप्ति की सभी इच्छाओं का त्याग कर देता है और शांति प्राप्त करता है। एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत धर्म या दायित्व का है।
एक प्रबंधक को अपनी टीम और संगठन के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करना चाहिए। उसे सही काम करना चाहिए, भले ही वह लोकप्रिय या सरल न हो। इसके लिए नैतिकता और नैतिक अखंडता की एक मजबूत भावना आवश्यक है। अंतत:, एक नेता को हमेशा करुणा और सहानुभूति का प्रदर्शन करना चाहिए। उसे अपने कर्मचारियों के साथ सम्मान और दयालुता से पेश आने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि वे सभी मनुष्य हैं और काम के बाहर भी उनकी निजी जिंदगी है।
इन अवधारणाओं का पालन करने से एक प्रबंधक एक खुशहाल और उत्पादक कार्य वातावरण स्थापित कर सकता है जिसमें सभी फल-फूल सकें। भगवद्गीता भौतिक संपत्ति से अलगाव की आवश्यकता पर जोर देती है। इस धारणा का उपयोग प्रबंधन द्वारा व्यक्तिगत लाभ या सत्ता संघर्ष में उलझने के बजाय संगठन के लक्ष्यों और मिशन पर केंद्रित रहकर किया जा सकता है।
आज के युवा हमारे राष्ट्र के अमूल्य उपहार हैं। गीता के माध्यम सें उन्हें उचित रूप से आकार देना और ढालना, साथ ही उनके व्यक्तित्व को निखारने में उनकी सहायता करना, उनके हृदय को पूर्णत: शुद्ध महसूस कराना, साथ ही उन्हें ब्रह्मांड के बेहतर नागरिक बनाकर उन्हें एक कदम आगे ले जाना, जो आगे चल कर बेहतर दुनिया का निर्माण करेंगे।
ब्रह्मांड के आधुनिक युवा आज अत्यधिक तनाव, दबाव और चिंता झेल रहे हैं। वे जल्दी बूढ़े हो जाते हैं और विभिन्न प्रकार की बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। भगवद्गीता में निहित शिक्षाओं का उपयोग जनरेशन जेड को अपने जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखने, आध्यात्मिक रूप से विकसित होने और उन्हें एक महान और शांत जीवन जीने का तरीका बताने में मदद करने के लिए किया जा सकता है।
भगवद्गीता का दिलचस्प पहलू यह है कि यह अनुयायी को इस सांसारिक जगत में सब कुछ त्यागने का औचित्य नहीं बताती। यह केवल मन और आत्मा को शुद्ध करती है, जो व्यक्ति को पूरी तरह से व्यथित करती है और उसे अपने आंतरिक स्व और परम सत्ता की खोज करने का अवसर देती है। इसके अलावा, यह युवाओं में मूल्यों और नैतिकता का संचार करता है, उन्हें भारत और शेष विश्व के नए स्वर्ण युग के लिए बेहतर वैश्विक नागरिक बनने के लिए तैयार करता है।
भगवद्गीता का प्रतिदिन पाठ करना और उसके पाठों व श्लोकों को समझना, साथ ही दैनिक चिंताओं और समस्याओं से मुक्त जीवन जीना, आपको युवा बने रहने और अपने जीवन में वर्षों जोड़ने में मदद करता है, जिससे युवाओं का भविष्य शांतिपूर्ण व प्रगतिशील बनता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश दिया ताकि उन्हें अपना कार्य और कर्तव्य पूरा करने के लिए प्रेरित किया जा सके, जब वह कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अपने सगे-संबंधियों और मित्रों को पराजित और मार डालने या न करने के नैतिक दुविधा का सामना कर रहे थे।
भगवद्गीता इस मायने में गंगा के समान है कि यह ज्ञान, कर्तव्य और कर्म पर बल देती है। जिस प्रकार गंगा नदी इस धरती पर अनेक युगों से बहती आ रही है और जाति, रंग, पंथ या मूल देश की परवाह किये बिना हर प्यासे व्यक्ति की प्यास बुझाती आ रही है, उसी प्रकार भगवद् गीता भी जाति, पंथ, धर्म या राष्ट्र की परवाह किए बिना मानव जाति के कल्याण के लिए उपयोगी साबित हो रही है। (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। उदारीकरण व वैश्वीकरण के दौर के बाद पूरी दुनिया में आर्थिक असमानता अपने चरम पर जा पहुंची है। एक तरफ लोग मूलभूत सुविधाओं के अभाव में सड़कों पर उतर रहे हैं तो दूसरी ओर अमीर से और अमीर होते लोगों की विलासिता के किस्से तमाम हैं। जिस बात की पुष्टि स्वतंत्र विशेषज्ञों के जी-20 पैनल द्वारा किए एक अध्ययन के निष्कर्षों में की गयी है।
इस अध्ययन के अनुसार, वर्तमान में वैश्विक स्तर पर असमानता भयावह स्तर तक जा पहुंची है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000 और 2024 के बीच दुनिया भर में बनी नई संपत्तियों का बड़ा हिस्सा दुनिया के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पास है। जबकि निचले स्तर की आधी आबादी के हिस्से में एक प्रतिशत ही आया है। निस्संदेह, भारत भी इस स्थिति में अपवाद नहीं है।
देश के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों ने केवल दो दशक में अपनी संपत्ति में 62 फीसदी की वृद्धि की है। दुनिया की इस चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में अमीर लगातार अमीर होते जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर गरीब गुरबत के दलदल से बाहर आने के लिए छटपटा रहे हैं। इस आर्थिक असमानता का ही नतीजा है कि अमीर व गरीब के बीच संसाधनों का असमान वितरण और बदतर स्थिति में पहुंच गया है।
निस्संदेह, पैनल की हालिया रिपोर्ट नीति-निमार्ताओं को असमानता के इस बढ़ते अंतर को पाटने के तरीके तलाशने और नये साधन खोजने के लिये प्रेरित करेगी। पिछले ही हफ्ते, केरल सरकार ने दावा किया था कि राज्य ने अत्यधिक गरीब तबके की गरीबी का उन्मूलन कर दिया है। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों ने इन दावों को लेकर संदेह जताया है।
वहीं दूसरी ओर राज्य के विपक्ष ने भी इन दावों को सिरे से खारिज कर दिया है। लेकिन इसके बावजूद राज्य में जन-केंद्रित विकास और सामुदायिक भागीदारी के लाभों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। निस्संदेह, इस पहल ने हजारों अत्यंत गरीब परिवारों को भोजन, स्वास्थ्य सेवा और आजीविका के बेहतर साधनों तक पहुंचने में मदद की है।
इसमें दो राय नहीं कि यदि सरकारें वोट बैंक की राजनीति से इतर ईमानदारी से पहले करें तो गरीबी उन्मूलन की दिशा में सार्थक पहल की जा सकती है। चुनाव से पहले मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की तेजी से बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। यह एक हकीकत है कि कोई भी सुविधा मुफ्त नहीं हो सकती। इस तरह की लोकलुभावनी कोशिशों से राज्यों का वित्तीय घाटा ही प्रभावित होता है।
जिसकी कीमत लोगों को विकास योजनाओं से दूर रहकर ही चुकानी पड़ती है। जनता को मुफ्त में सुविधाएं देने के बजाय ऋण व अनुदान से उत्पादकता बढ़ाकर उन्हें स्वावलंबी बनाना होगा। प्रत्येक चिन्हित गरीब परिवार के लिए सूक्ष्म योजनाएं तैयार करना और उन्हें क्रियान्वित करना उचित होगा। निस्संदेह, देश के अन्य राज्य भी अपनी जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार केरल के मॉडल को अपना सकते हैं।
इसमें केंद्र व राज्य सरकारों को अनुकूल आंकड़ों का सहारा लेना भी जरूरी होगा। इस साल की शुरुआत में, विश्व बैंक ने बताया था कि भारत 2011-12 और 2022-23 के बीच 17 करोड़ लोगों को गरीबी की दलदल से बाहर निकालने में सफल रहा है। केंद्र सरकार ने अपने काम के लिये खुद की पीठ भी थपथपायी थी। हालांकि, गरीबी के अनुमानों की रिपोर्टिंग की कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठाये गए थे।
निर्विवाद रूप से सभी हितधारकों को यह तथ्य समझना होगा कि केवल संख्याएं ही पूरी तस्वीर को नहीं उकेर सकती हैं। गरीबी कम करने के प्रयासों के दावों के मुताबिक जमीनी स्तर पर गुणात्मक बदलाव नजर भी आना चाहिए। हालांकि, अर्थशास्त्री आमतौर पर संपत्ति कर लगाने के पक्षधर नहीं होते हैं, लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अति-धनी लोग सरकारी खजाने में अपना उचित योगदान दें।
अब चाहे कोई अमीर हो या गरीब, सबका ध्यान विकास पर केंद्रित किया जाना चाहिए। तभी देश उत्पादकता के क्षेत्र में आगे बढ़कर गरीबी उन्मूलन की दिशा में सार्थक प्रगति कर सकता है। यह पहल ही विकसित भारत के सपने को साकार करने में मददगार साबित हो सकती है।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। मंगलवार अगहन शुक्ल पक्ष के पंचमी तिथि दिनांक 25 नवंबर 2025 को शुभ अभिजीत मुहूर्त में देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्रीमान मोहन भागवत ने संयुक्त रूप से अयोध्या में निर्मित भव्य राम मंदिर के शिखर पर श्रीराम मंदिर के निर्माण के पूर्णाहुति की अंतिम आहुति के रूप में 11.50 बजे 18 फीट लंबी 9 फीट चौड़ी भगवा ध्वज को मंदिर के शिखर में अवस्थित स्वर्ण दंड पर आरोहित किया।
भावविह्वल मोदी जी ने प्रकंपित हाथों से करबद्ध ध्वज को प्रणाम किया। इस आयोजन के साथ ही 500 वर्षों के सतत संघर्ष को विराम मिला। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह कार्य प्राथमिकता की सूची में होनी चाहिए थी, परंतु संकीर्ण एवं स्वार्थ राजनीति के कारण इसकी अवहेलना की गयी।
यह यथार्थ है कि मंदिर के निर्माण में न्यायालय के निर्णय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई परंतु यथार्थ यह भी है कि संपूर्ण राष्ट्र ने मंदिर निर्माण में अनुकूल वातावरण का निर्माण किया। ध्वजारोहण के बाद प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में राष्ट्रीय चेतना की भावना प्रत्येक भारतीयों के हृदय में रहने की बात कही। मंदिर निर्माण के पूर्णाहुति भारतीय सांस्कृतिक गौरव तथा राष्ट्रीय एकता का उद्घोष है। यह ध्वज नीति एवं न्याय का प्रतीक बना रहेगा।
यह ध्वज सुशासन से समृद्धि का पथ प्रदर्शक और विकसित भारत की ऊर्जा बनकर सदा सदा के लिए आरोहित रहेगा। संपूर्ण समाज के सामूहिक सहयोग, समर्थन, सदाचार, और संपर्क से एक राजकुमार को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जैसे व्यक्तित्व का निर्माण कर किया। संपूर्ण देशवासियों के राष्ट्रीय चेतना की शक्ति से ही भारत को संपूर्ण उन्नत किया जा सकता है।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। बचपन में दिखने वाले छोटे संकेत अक्सर हमारी नज़र से छूट जाते हैं, और बाद में हमें पता चलता है कि वही शुरुआती संकेत बच्चे के विकास को गहराई से प्रभावित कर रहे थे। विशेष बच्चों, जैसे सेरेब्रल पाल्सी, ऑटिज़्म और एडीएचडी के साथ काम करते हुए यह समझ आता है कि कई बार परिवार कुछ लक्षणों को सामान्य मानकर आगे बढ़ जाता है।
जन्म के बाद बच्चे का तुरंत न रोना, बहुत ज़्यादा या बहुत कम रोना, लेटकर दूध पिलाने की आदत बन जाना, बोलने में देरी होना, सरल निर्देश न मानना, बार-बार चिड़चिड़ापन, बहुत कम या बहुत अधिक नींद, या फिर लगातार दौड़ते-भागते रहना—ये सब केवल बच्चों की आदतें नहीं होतीं। कई बार ये संकेत होते हैं कि बच्चा किसी विकासात्मक चुनौती से गुजर रहा है और उसे समय रहते सहारा चाहिए।
बच्चे कब पलटते हैं, कब बैठते हैं, कब बोलते हैं, कब चलना शुरू करते हैं, ये सभी विकासात्मक माइलस्टोन उनके मस्तिष्क और शरीर की प्रगति बताते हैं। इन्हें समझना और समय पर पहचानना माता-पिता और शिक्षकों दोनों के लिए ज़रूरी है।
अगर किसी भी तरह की देरी या असामान्यता दिखे तो विशेषज्ञ से सलाह लेने में देर नहीं करनी चाहिए। समय रहते कदम उठाया जाए तो बच्चा बहुत बेहतर तरीके से आगे बढ़ सकता है। बचपन को समझना ही उसके भविष्य को सुरक्षित बनाना है। राँची में दीपशिखा विशेष बच्चों को निरंतर सहयोग और सहायता प्रदान करती है I (लेखक अदिति विवेक भसीन रांची की प्रसिद्ध मनोविज्ञानी हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। बिहार की जनता ने एक ऐसा जनादेश दिया है, जिसका महत्व सीटों के गणित से कहीं आगे जाता है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने विधानसभा की 243 सीटों में से 202 सीट पर जीत दर्ज की है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अकेले 89 सीटें हासिल की हैं, जो राज्य में पार्टी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। दशकों तक विभिन्न गठबंधनों के तहत बिहार की राजनीति पर अपना दबदबा बनाये रखने के बाद, महागठबंधन अब सिर्फ 34 सीटों पर सिमट गया है।
7.4 करोड़ से ज्यादा पंजीकृत मतदाताओं में से 67.13 प्रतिशत ने मतदान किया। यह चुनाव राज्य के हाल के इतिहास में सबसे कड़े मुकाबले वाले चुनावों में से एक सिद्ध हुआ है और चुनाव परिणामों ने वास्तविक लोकतांत्रिक गहराई को रेखांकित किया है। वर्षों तक, बिहार पर व्यक्त किये गए विचारों में राज्य को समय के प्रवाह में एक रूका हुआ राज्य मान लिया गया था। चुनावों को जातिगत अंकगणित की कवायद माना जाता था और सामाजिक जनसांख्यिकी को राजनीतिक नतीजों में तब्दील कर दिया जाता था।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में, भारतीय राजनीति का परिदृश्य निर्णायक रूप से विकास, समावेश और राज्य क्षमता के रूप में बदल गया है तथा बिहार के मतदाताओं ने इस बदलाव को लेकर पूरी स्पष्टता से जवाब दिया है। 2025 के परिणाम एक ऐसे मतदाता को इंगित करते हैं, जिसकी आकांक्षा बड़ी है और जिसने असुरक्षा व पक्षाघात वाले बिहार तथा बेहतर शासन वाले बिहार के बीच के अंतर को महसूस किया है।
कई नागरिकों ने बातचीत में और मतदान के पैटर्न में व्यक्त किया है कि 2024 के आम चुनाव में अपेक्षा से कम समर्थन के बाद यह चुनाव जिम्मेदारी की भावना लेकर आया है। लोगों ने अपने निष्कर्ष निकाले हैं कि वे देश की व्यापक यात्रा में बिहार को कहां देखना चाहते हैं। बेहतर शासन ने इस परिवर्तन को आधार प्रदान किया है। पिछले एक दशक में, बिहार में 55,000 किलोमीटर से अधिक ग्रामीण सड़कों का निर्माण या उन्नयन हुआ है, जो गांवों को बाजारों, स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों से जोड़ती हैं। केंद्रीय योजनाओं और राज्य कार्यक्रमों के संयोजन के माध्यम से लाखों परिवारों को बिजली, पेयजल और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त हुई है।
सौभाग्य और उससे जुड़ी पहलों के तहत, बिहार में 35 लाख से ज्यादा घरों का विद्युतीकरण किया गया, जिससे राज्य सार्वभौमिक घरेलू बिजली आपूर्ति के करीब पहुंच गया। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत, बिहार के लिए 57 लाख से ज्यादा पक्के घर स्वीकृत किये गये हैं, जिनमें से कई महिलाओं के नाम पर पंजीकृत हैं। ये आंकड़े उन ठोस बदलावों की ओर इशारा करते हैं, जिन्हें लोग देख और अनुभव कर सकते हैं: एक बारहमासी सड़क, एक जलती रहने वाली रोशनी, एक नियमित पेयजल आपूर्ति करने वाला नल तथा एक ऐसा घर, जो सम्मान प्रदान करता हो।
जैसे-जैसे इन सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रमों का विस्तार हुआ, पुरानी शक्तियों की पकड़ ढीली होती गयी। बिहार का समाज विविधतापूर्ण और बहुस्तरीय है, फिर भी चुनावी लिहाज से यह बहुस्तरीय समाज अपने समुदायों तक सीमित नहीं रहा। विभिन्न समुदायों की महिलाएँ अब सुरक्षा, आवागमन और अवसर को लेकर एक जैसी अपेक्षाएं रखती हैं। कभी सामाजिक पदानुक्रम के विपरीत छोर पर खड़े परिवारों के युवा अब खुद को एक ही कोचिंग क्लास और श्रम बाजार में पाते हैं।
उनके रोजमर्रा के अनुभव उन्हें आकांक्षाओं के एक साझा दायरे में ले आते हैं। उस दायरे में, वे राजनीति से रोजगार, अवसंरचना, स्थिरता और निष्पक्षता जैसे सवाल पूछते हैं। इस जनादेश ने वंशवाद-केंद्रित राजनीति पर भी एक स्पष्ट संदेश दिया है। पारिवारिक करिश्मे और विरासत में मिले नेटवर्क पर निर्भर रहने वाली पार्टियों का विधायी दायरा तेजी से सिकुड़ रहा है। बिहार ने कई दशकों से ऐसे गठबंधनों को करीब से देखा है और उनकी सीमाओं को समझा है।
2025 के नतीजे बताते हैं कि मतदाता इस बात पर गौर कर रहे हैं कि नेता सरकार में कैसा व्यवहार करते हैं, संकट के समय में उनकी प्रतिक्रिया कैसी होती है, संस्थाओं के साथ कैसे व्यवहार करते हैं और सार्वजनिक संसाधनों का किस रूप में उपयोग करते हैं। व्यापक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में पारिवारिक पृष्ठभूमि मौजूद है, लेकिन वहां भी कड़ी मेहनत, संगठनात्मक क्षमता और सेवा के रिकॉर्ड से जुड़ी मांगें उन्हें बेहतर कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं।
युवा मतदाताओं का व्यवहार इस बदलाव का मूल तत्व है। बिहार भारत की सबसे युवा जनसांख्यिकीय आबादी वाले राज्यों में से एक है और 2000 के बाद जन्म लिए लाखों नागरिकों ने इस चुनाव में मतदान किया है। वे ऐसे भारत में पले-बढ़े हैं जहां एक्सप्रेसवे, डिजिटल भुगतान, प्रतिस्पर्धी संघवाद और महत्वाकांक्षी कल्याणकारी योजनाएं अपेक्षाओं को आकार देती हैं। वे राज्यों की तुलना करते हैं, घोषणाओं पर नजर रखते हैं और नेताओं का मूल्यांकन इस आधार पर करते हैं कि वादे कितनी तेजी से कार्यान्वित होते हैं।
उनके लिए, समय पर बनी सड़क और कभी फाइल से बाहर न आने वाली सड़क के बीच का अंतर समझना कोई कठिन बात नहीं है। वे हर दिन उस अंतर का अनुभव करते हैं जब वे कॉलेजों, कोचिंग सेंटर या कार्यस्थलों पर आते-जाते हैं, या जब वे अपने परिवारों को परिवहन संपर्क-सुविधा और कल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित होते देखते हैं। यह पीढ़ी राष्ट्रीय एकजुटता के लिए भी एक तीव्र प्रवृत्ति रखती है।
युवा मतदाता ऐसी बयानबाजी के प्रति सतर्क रहते हैं, जो संस्थानों को कमजोर करती हैं, अलगाववादी भावनाओं को भड़काती हैं या राष्ट्रीय सुरक्षा को कम महत्व देती हैं। वे बेरोजगारी और असमानता सहित नीतिगत बहसों में आलोचनात्मक रूप से शामिल होते हैं, फिर भी वे गणतंत्र को बेहतर बनाने वाली आलोचना और देश की एकजुटता के प्रति उदासीन आख्यानों के बीच एक रेखा खींचते हैं। बिहार का जनादेश इसी अंतर को प्रतिबिंबित करता है।
मतदाताओं ने एक ऐसे राजनीतिक गठबंधन को अपना समर्थन दिया है, जो विकास और राष्ट्रीय उद्देश्य दोनों को असाधारण स्पष्टता के साथ व्यक्त करता है। कानून-व्यवस्था एक अन्य व्याख्या प्रस्तुत करती है। बिहार के चुनाव कभी बूथ कब्जे और हिंसा से जुड़े होते थे। हाल के वर्षों में, और खासकर इस चुनावी दौर में, ये छवियां काफी हद तक धुंधली पड़ गयी हैं। कड़े सुरक्षा उपायों और आर्थिक विकास के संयुक्त प्रभाव से उग्रवाद कमजोर पड़ा है।
व्यापारी अब अपनी दुकानें ज्यादा देर तक खुली रखते हैं, छात्र ज्यादा आत्मविश्वास से यात्रा करते हैं और परिवार निश्चिंत होकर सार्वजनिक जीवन का अनुभव करता है। जिस मतदाता ने इन सुधारों को देखा है, वह अपने प्रतिनिधियों को चुनते समय इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता। इन घटनाक्रमों पर विपक्ष के कुछ हिस्सों की प्रतिक्रिया चौंकाने वाली रही है। अपने समर्थन में आयी कमी के कारणों पर विचार करने के बजाय, कुछ नेता चुनाव आयोग, मतदाता सूचियों या पूरी प्रक्रिया की निष्पक्षता पर ही संदेह व्यक्त कर रहे हैं।
यह रवैया बिहार के मतदाताओं की बुद्धिमत्ता के साथ न्याय नहीं करता। यह इस तथ्य की भी अनदेखी करता है कि इसी संस्थागत व्यवस्था ने अन्य राज्यों में विपक्ष के पक्ष में भी नतीजे दिए हैं। मतदाता उस व्यवस्था की निंदा करने के बजाय अपनी चिंताओं के साथ अधिक गंभीर जुड़ाव की अपेक्षा करता है जिसका उसने अभी इतने उत्साह से इस्तेमाल किया है। व्यापक राष्ट्रीय और वैश्विक संदर्भ में, बिहार का जनादेश एक उभरते हुए पैटर्न को मजबूत करता है।
ऐसे समय में जब कई लोकतंत्र ध्रुवीकरण, आर्थिक कठिनाई और संस्थागत थकान से जूझ रहे हैं, भारत ने उच्च भागीदारी, स्थिर नेतृत्व तथा विकास, समावेश और राष्ट्रीय शक्ति पर केंद्रित नीति मार्ग पर आगे बढ़ना जारी रखा है। बिहार के परिणाम, इस विकास-पथ के लिए लोकतांत्रिक समर्थन की एक और परत जोड़ते हैं। राजनीतिक रूप से भारत के सबसे जागरूक राज्यों में से एक के मतदाता महसूस करते हैं कि उनकी प्रगति, 2047 तक एक विकसित और आत्मविश्वास से भरे भारत की ओर देश की बड़ी यात्रा के साथ जुड़ी हुई है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए यह जनादेश प्रोत्साहन और निर्देश दोनों है। यह अवसंरचना, कल्याणकारी सेवा अदायगी और सुरक्षा पर जोर को मान्यता देता है, लेकिन यह तेजी से रोजगार सृजन, गहन सुधारों और निरंतर संस्थागत सुधार की उम्मीदों को भी सामने रखता है।
विपक्ष के लिए, यह जनादेश रणनीति, नेतृत्व और कार्यक्रम के बारे में गंभीर सवाल खड़े करता है। बिहार के मतदाताओं ने संकेत दिया है कि वे शासन, गंभीरता और राष्ट्रीय एकता के प्रति सम्मान पर आधारित राजनीति की उम्मीद करते हैं। ये उम्मीदें आने वाले वर्षों में भारतीय राजनीति का परिदृश्य तय करेंगी। (लेखक भारत के पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। पंद्रह नवंबर का दिन झारखंड की आत्मा को झकझोरता है। यह वह पवित्र दिन है जब हमारे महान जनजातीय नायक भगवान बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। यही वह दिन है जब सन् 2000 में झारखंड का जन्म हुआ। किंतु आज पच्चीस वर्ष बाद हमारा राज्य खुद अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। यह संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं है। यह संघर्ष आर्थिक शोषण के विरुद्ध है। यह संघर्ष उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए है।
झारखंड का आज का दृश्य चिंताजनक है। नागरिक (ग्राहक ) जो हर दिन बाजार जाते हैं, उन्हें पता नहीं कि वे क्या खरीद रहे हैं। एक दवाई जो जान बचानी चाहिए, वह जान ले रही है। खाद्य पदार्थों में मिलावट की महामारी ने हर घर को असुरक्षित बना दिया है। साइबर अपराधियों का तांडव सामान्य मनुष्य की जेब काट रहा है और इसी बीच भ्रष्टाचार जनता के विश्वास को निगलते जा रहा है। यह संकट उसी तरह का है जिसका सामना बिरसा मुंडा ने किया था, किंतु इस बार दुश्मन अंग्रेज नहीं है, बल्कि हमारे अपने संस्थान हैं।
झारखंड में नकली दवाओं का कारोबार पूरी तरह अनियंत्रित हो गया है। राज्य में मात्र बारह दवा निरीक्षक हैं, जबकि आवश्यकता बयालीस की है। इसका अर्थ यह है कि एक निरीक्षक के पास चार-चार जिले हैं। ऐसे में दवा की सप्लाई चेन में हर स्तर पर जांच नहीं हो पाती है। नतीजा यह है कि दवा निमार्ता से लेकर दुकानदार तक, नकली माल का व्यापार निर्बाध रूप से चलता है।
हाल ही में सुखदेव नगर थाने के क्षेत्र में स्थित एक सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में नकली एंटीबायोटिक टैबलेट पकड़ी गई। जांच में पता चला कि दवा निर्माता, सप्लायर और दोनों के पते सब फर्जी थे। टैबलेट में संबंधित दवा के सक्रिय तत्व तक नहीं थे। रोगी को गलत दवा दे कर उसके संक्रमण को बढ़ाना एक राष्ट्रीय शर्म का विषय है।
ब्रांडेड दवाओं के नाम पर नकली और सब-स्टैंडर्ड दवाओं का धंधा तेजी से बढ़ रहा है। दर्द निवारक, बुखार की दवाएं, शुगर, हाई ब्लड प्रेशर, थायरॉयड, गर्भनिरोधक गोलियां, विटामिन सप्लिमेंट्स ये सभी वस्तुएं अवैध कारोबारियों के कब्जे में चली गयी हैं। मरीज दवा का कोर्स पूरा करते हैं, किंतु राहत नहीं मिलती, क्योंकि उन्हें नकली दवा दे दी गयी है। चिकित्सकों को बार-बार दवाएं बदलनी पड़ती हैं। यह न केवल स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है, बल्कि गरीब परिवारों के सीमित संसाधनों पर सीधा हमला है।
सरकार ने क्यूआर कोड लागू करने की कोशिश की है, जिससे असली और नकली दवा की पहचान की जा सके। किंतु यह समाधान अधूरा है। समस्या यह है कि जांच सुविधाएं अपर्याप्त हैं। अन्य जिलों में मानक जांच भी संभव नहीं है। क्या हमारे नागरिकों के जान का मूल्य इतना कम है कि हम उन्हें पर्याप्त संसाधन भी नहीं दे सकते?
खाद्य सुरक्षा प्रणाली झारखंड में पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। राज्य की इकलौती खाद्य परीक्षण प्रयोगशाला को राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड (एनएबीएल) ने मान्यता से वंचित कर दिया है, क्योंकि यह अपग्रेड नहीं की गई। नतीजा यह है कि अब राज्य में खाद्य पदार्थों में मिलावट की कानूनी जांच ही नहीं हो सकती। पहले यहां हर साल 1200 से अधिक सैंपलों की जांच होती थी, जिसमें से 40 प्रतिशत में मिलावट पायी जाती थी। अब तो यह जांच ही बंद हो गयी है।
इसका मतलब साफ है कि मिलावट करने वाले अब निर्बाध रूप से अपना काम करेंगे। अनाज में चूरा, मसालों में जहरीले रंग, दूध में मिलावट, सब्जियों में कीटनाशक- ये सब अब बिना किसी बाधा के बिकेंगे। गरीब परिवार जो सब्जी मंडी से सस्ते दाम पर सब्जियां खरीदते हैं, वे नहीं जानते कि वे अपने बच्चों को जहर खिला रहे हैं।
पिछले वर्ष मसालों में मिलावट के खिलाफ एफएसएसएआई द्वारा अक्टूबर माह में अभियान चलाया गया। जांच में पाया गया कि काली मिर्च में स्टार्च, मिर्च पाउडर में हानिकारक रंग, हल्दी पाउडर में मिट्टी सब कुछ मिलावट के लिए उपयोग हो रहा है। ये रंग कैंसर का कारण बन सकते हैं। किंतु न तो सरकार के पास संसाधन हैं और न ही राजनीतिक इच्छा है कि इस महामारी को रोका जा सके।
झारखंड हाईकोर्ट ने भी मिलावटी खाद्य पदार्थों की बिक्री को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिये हैं कि खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की नियुक्ति जल्द से जल्द की जाये। किंतु अब तक इस निर्देश का पालन नहीं हुआ है।
साइबर अपराध में झारखंड का नाम शर्म से जुड़ा हुआ है। जनवरी से जून 2025 तक महज छह महीने में 11910 शिकायतें दर्ज हुईं। यानी हर दिन औसतन 66 शिकायतें। इसी अवधि में 767 साइबर अपराधी गिरफ्तार किये गये। फिर भी संकट थमता नहीं दिख रहा।
जनवरी 2024 से जून 2025 तक डेढ़ साल में 390 करोड़ रुपये का साइबर फ्रॉड हुआ है। कल्पना कीजिए, देश का यह हिस्सा कितना असुरक्षित है जहां हर दिन इतनी बड़ी ठगी होती है। पेंशनभोगी, अकेली महिलाएं, छोटे व्यापारी सभी अपने जीवन भर की बचत को खो देते हैं। बैंकों को धोखा दिया जाता है, आधार के नाम पर बिना अनुमति के खाते खोले जाते हैं, व्यक्तिगत डेटा चोरी होता है।
सबसे दर्दनाक बात यह है कि पीड़ितों को उनका पैसा वापस नहीं मिलता। हालांकि हाल ही में हाईकोर्ट के निर्देश के बाद पुलिस को पीड़ितों को पैसा लौटाने की व्यवस्था करने का आदेश दिया गया है, किंतु यह प्रक्रिया अभी शुरूआती चरण में है। जामताड़ा से लेकर देवघर तक, साइबर अपराधियों का जाल फैला हुआ है।ये गिरोह विदेशी सर्वर का इस्तेमाल करते हैं। डिजिटल गिरफ्तारी करके पीड़ितों को ब्लैकमेल किया जाता है।
यह केवल व्यक्तिगत हानि नहीं है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है। हर वह नागरिक असुरक्षित है जो इंटरनेट का उपयोग करता है। बुजुर्ग, किशोर, महिलाएं, सभी निशाने पर हैं। आनलाइन शॉपिंग, बैंकिंग, सोशल मीडिया - हर क्षेत्र में खतरा है।
भ्रष्टाचार ने झारखंड की नसों में जहर घोल दिया है। अबुआ आवास जैसी सरकारी योजनाओं में भी गरीब लाभुकों से घूस मांगी जाती है। कुछ गरीब कर्ज लेकर पैसे देते हैं ताकि उन्हें आवास मिल सके। स्वास्थ्य विभाग में अधिकारियों की मिलीभगत से ही नकली दवाओं का सिलसिला चलता है।
पूर्व डीजीपी अनुराग गुप्ता के समय एनजीओ शाखा के प्रभारी इंस्पेक्टर गणेश सिंह के विरुद्ध भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने जांच दर्ज की है। आरोप है कि उन्होंने विभिन्न फाइलों के निष्पादन के बदले में अवैध वसूली की। जब सत्ता का संरक्षण होता है, तो भ्रष्टाचार पनपता है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि झारखंड में भ्रष्टाचार व्यवस्थागत समस्या बन गयी है, न कि अपवाद।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय और राज्य के आयोग खुद ही सोए हुए हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 को लागू हुए पांच वर्ष हो गए हैं, किंतु झारखंड में इसकी क्रियान्वयन व्यवस्था और स्ट्रक्चर अभी भी कमजोर है। केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण के गठन के बाद भी झारखंड में इसकी कार्यप्रणाली स्पष्ट नहीं हुई है।
बिरसा मुंडा की जयंती और झारखंड स्थापना दिवस केवल राजनीतिक उत्सव नहीं हैं। ये अवसर हैं हमारे प्रतिबद्धता को नवीकृत करने का। झारखंड सरकार को तत्काल निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए।
नकली दवाओं के विरुद्ध दवा निरीक्षकों की संख्या तुरंत बढ़ानी चाहिए। प्रत्येक जिले में एक आधुनिक दवा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित की जानी चाहिए। दवा सप्लाई चेन को पूरी तरह डिजिटल किया जाना चाहिए। दवा दुकानों पर निरंतर निगरानी होनी चाहिए। खाद्य सुरक्षा के लिए स्टेट फूड लैब को तुरंत अपग्रेड किया जाना चाहिए। प्रमुख जिला केंद्रों में अतिरिक्त खाद्य परीक्षण प्रयोगशालाएं स्थापित की जानी चाहिए। खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की नियुक्ति में तेजी लायी जानी चाहिए।
साइबर अपराध के विरुद्ध हर जिले में साइबर जांच की इकाई स्थापित की जानी चाहिए। पीड़ितों को उनका पैसा लौटाने की तेजी से प्रक्रिया की जानी चाहिए। स्कूलों में साइबर सुरक्षा की शिक्षा दी जानी चाहिए। भ्रष्टाचार के विरुद्ध एसीबी को सशक्त किया जाना चाहिए। एक ही स्थान पर तीन साल से अधिक समय तक रहने वाले अधिकारियों का तबादला अनिवार्य किया जाना चाहिए।
साथ ही, हर झारखंडवासी को भी अपने दायित्व के बारे में जागरूक होना चाहिए। अपने अधिकारों के बारे में जानें। संदिग्ध उत्पादों की शिकायत दर्ज करें। स्थानीय स्तर पर उपभोक्ता समूह बनायें। सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन पर निगरानी रखें। इंटरनेट के उपयोग में सावधानी बरतें। शिक्षा को बढ़ावा दें।
बिरसा मुंडा को 150 साल पहले राजनीतिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़नी पड़ी थी। आज हमें आर्थिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़नी है। नकली दवा, खाद्य मिलावट, साइबर अपराध, भ्रष्टाचार ये सब नए अंग्रेज हैं, जो आंतरिक रूप से हमें लूट रहे हैं। हर गली में, हर मोहल्ले में, हर गांव में उपभोक्ता जागरूकता समूह बनने चाहिए। यह नयी क्रांति होगी आंतरिक शत्रुओं के विरुद्ध, आर्थिक न्याय के लिए, सामाजिक कल्याण के लिए।
बिरसा कहते थे: अबुआ राज तोहरो काज। हमारा राज्य, हमारा काम। आज हर झारखंडवासी को यह आह्वान दोहराना चाहिए। अपने राज्य को बचाने के लिए, अपने परिवार को सुरक्षित करने के लिए, अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए, हर नागरिक को सचेष्ट होना चाहिए। यह समय परिवर्तन का है। यह समय आंदोलन का है। यह समय क्रांति का है। जय बिरसा मुंडा! जय झारखंड! (लेखक अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के क्षेत्र संगठन मंत्री हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। बिहार बीजेपी में आरा वाले पूर्व सांसद आरके सिंह के आउट होते ही छपरा वाले बाबू साहब राजीव प्रताप रूढ़ी की पूछ बढ़ गई है। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राजीव प्रताप रूढ़ी भाजपा के तरफ से सबसे बड़े राजपूत चेहरे के रूप में नजर आए।
पूर्व केंद्रीय मंत्री आरके सिंह पूरे चुनाव प्रचार के दौरान कहीं भी मंच पर नहीं दिखे। ना पार्टी की तरफ से पूछा गया और ना ही उन्होंने अपने तरफ से पहल की। उल्टे पार्टी के लिए मुसीबत ही बने रहे। आर के सिंह की अपनी पीड़ा है। आरा में जिन लोगों ने उन्हें चुनाव में हरवाया, उन्हीं लोगों ने उन्हें पार्टी में भी पहले राज्यसभा और फिर एमएलसी बनने से रोक दिया।
आरके सिंह जवाब मांगते हैं कि चुनाव हारने वाले उपेंद्र कुशवाहा को राज्यसभा भेजा गया। भगवान सिंह कुशवाहा को एमएलसी बनाया गया। इस बार विधानसभा चुनाव में भी दोनों पर पर भाजपा ही खूब ध्यान देती रही, जबकि आरा में सबसे बेहतर काम करने और तमाम विवादों से दूर रहने वाले उनको पार्टी आश्वासन देती रही।
किसी भी छपरा वाले सांसद राजीव प्रताप रूढ़ी का राणा सांगा वाला अभियान बीजेपी के लिए संजीवनी बन गया। राजीव प्रताप रूढ़ी को भी पता है कि बीजेपी बिहार में राजपूत को सबसे ज्यादा विधानसभा में टिकट देकर यह मैसेज देना चाहती है कि भले सबसे ज्यादा विधायक और सांसद जीतने वाली इस जाति को बिहार मंत्रिमंडल और केंद्र में उचित स्थान बिहार कोटे से नहीं मिला हो पर टिकट के मामले में आज भी राजपूत बिहार में बीजेपी की पसंद है।
ऐसे में पूरे बिहार में उन्होंने भाजपा ही नहीं एनडीए के तमाम प्रत्याशियों के लिए इंटरनल अभियान भी चलाया है। विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद राजीव प्रताप रूढ़ी को बड़ा इनाम मिल सकता है।
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