एबीएन एडिटोरियल डेस्क। रात का तीसरा पहर है। नींद नहीं आ रही। सोचा, जरा सोशल मीडिया टहल आया जाए। रात बारह बजे के बाद तारीख बदल चुकी है, 17 सितंबर हो गया है। विश्वकर्मा पूजा है। सुबह क्या होगा पता नहीं, मगर अभी सोशल मीडिया पर कहीं विश्वकर्मा पूजा की एक भी शुभकामना पोस्ट नहीं दिखी।
ऐसा नहीं है कि लोगों ने कोई नई पोस्ट नहीं डाली। पोस्ट तो जैसे तैर रहे हैं, और वह केवल एक बात की, मोदी जी के जन्मदिवस की बधाई पोस्ट।
मैं ऐसा नहीं कह रहा कि मोदी जी विश्वकर्मा के अवतार हो गए या भगवान से बड़े हो गये। भगवान तो भगवान हैं, इन्द्रियां वे ही चलाते हैं। बुद्धि के नियंत्रक भी भगवान ही हैं। श्रद्धा के सृजक भी वे ही हैं। हमारी आस्था के आधार भी भगवान ही हैं। सब कुछ उनकी महिमा के प्रभाव से ही तय होता है।
तो मैं सोचता हूँ कि एक से एक पढ़े लिखे, बुद्धिमान, हिन्दू आस्थावान, संस्कारी लोगों में यह प्राथमिकता किसने तय की कि बिना कुछ भूले, बिना देर किये, जितनी जल्दी हो, रात के बारह बजने की प्रतीक्षा करते हुए नववर्ष की पिछली रात की तरह तत्काल मोदी जी को उनके जन्मदिवस की बधाई दी जाए। आखिर बधाई पोस्ट की होड़ क्यों? किसे दिखाना है हमें? इस बधाई की भीड़ में हमारी पोस्ट कल कहाँ खो जाएगी, पता नहीं, फिर भी बधाई की जल्दी!!!
यह किसी को दिखाने का मामला नहीं, यह कोई पोस्ट स्पर्धा नहीं। एक आत्मतुष्टि है। समझिये, एक कर्तव्य का बोध है। जिसे हम दिमाग में रखते हैं, वह विस्मृत हो सकता है, जिसे औपचारिक और ट्रेंड के अनुसार करना जरूरी समझते हैं, उसका समय तय नहीं होता, कभी भी पूरी कर सकते हैं, मगर जब हृदय किसी को सम्मान, आस्था, अद्वितीयता या एक उत्सर्ग को आकुल प्राणी के रूप में ग्रहण करता है तो वह विश्वशिल्पी से पहले हमारा भावग्रहण करने का स्वयमेव अधिकारी हो जाता है।
मैं नहीं जानता, भारत की आज से पचास साठ साल बाद आने वाली पीढ़ी, मोदी युग का मूल्यांकन किस प्रकार करेगी। राष्ट्र को एक कुशल शिल्पकार की तरह गढ़ने का जो जिम्मा इन्होंने उठाया है, वे इसकी सूरत यथेष्ट बदल पायेंगे या नहीं।
विनाशकारी तत्वों की सफल सक्रियता देखते हुए बताना मुश्किल है, मगर इतना जानता हूँ, कि आज इनकी राह में आंशिक राजनीतिक लाभ के लिए जितने लोग बाधा बनकर खड़े हैं, इनकी निंदा कर रहे हैं, राजनीतिक ईर्ष्या से अपमान करने की सारी हदें पार कर जा रहे हैं, वह एक महापाप है। ऐसा पाप, जिसका दंश उन्हें भुगतना ही होगा।
बस और कुछ न कहूँगा।
हर व्यक्ति अपने हिसाब से, सोच से, आकलन करता है। मैंने भी किया है। करता ही आ रहा हूँ, सुनता भी आ रहा हूँ। अंधभक्त तो तकिया कलाम हो गया है, मोदी जी का प्रशंसक यह विशेषण अवश्य पाता है। विरोधी छोड़िये, स्वयं भाजपाई भी इन्हें भला- बुरा कहने से नहीं चूकते।
उनसे क्या कहूँ, वे ईमानदारी से पिछले पंद्रह वर्ष और उसके पहले के हालात को दो हिस्सों में बांटकर मूल्यांकन कर लें, तो उन्हें साफ दिखेगा कि एक मूर्तिकार मूर्ति के अंग- प्रत्यंग को सही रूप देने, गढ़ने, सँवारने के लिए उस पर चढ़कर अपना श्रम और कला समर्पित करता है, तब वह उस मूर्ति के कद से बड़ा प्रतीत होता है। मगर यह सत्य नहीं है, मूर्तिकार का कद विग्रह से बड़ा कभी नहीं हो सकता।
याद रहे, राष्ट्र विग्रह है और यह शिल्पकार हमारा भाग्य। हमें उसके श्रम, समर्पण, और नीयत के कद की माप कभी नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि यह भाग्य से होता है और भाग्य के कद की कोई माप नहीं होती। यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी पर विश्वशिल्पी भगवान की कृपा बनी रहे, वे दीर्घायु हों। (लेखक स्वतंत्र स्तम्भकर हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। एक बार एक पिता और उसका पुत्र जलमार्ग से कहीं यात्रा कर रहे थे और तभी अचानक दोनों रास्ता भटक गये। फिर उनकी नौका भी उन्हें ऐसी जगह ले गई, जहाँ दो टापू आस-पास थे और फिर वहाँ पहुंच कर उनकी नौका टूट गई।
पिता ने पुत्र से कहा, अब लगता है, हम दोनों का अंतिम समय आ गया है, दूर-दूर तक कोई सहारा नहीं दिख रहा है। अचानक पिता को एक उपाय सूझा, अपने पुत्र से कहा कि, "वैसे भी हमारा अंतिम समय नज़दीक है, तो क्यों न हम ईश्वर की प्रार्थना करें।
उन्होंने दोनों टापू आपस में बाँट लिए। एक पर पिता और एक पर पुत्र, और दोनों अलग-अलग टापू पर ईश्वर की प्रार्थना करने लगे। पुत्र ने ईश्वर से कहा, हे भगवन, इस टापू पर पेड़-पौधे उग जाए जिसके फल-फूल से हम अपनी भूख मिटा सकें।
ईश्वर द्वारा प्रार्थना सुनी गयी, तत्काल पेड़-पौधे उग गये और उसमें फल-फूल भी आ गये। उसने कहा ये तो चमत्कार हो गया। फिर उसने प्रार्थना कि, एक सुंदर स्त्री आ जाए जिससे हम यहाँ उसके साथ रहकर अपना परिवार बसाएँ।
तत्काल एक सुंदर स्त्री प्रकट हो गयी। अब उसने सोचा कि मेरी हर प्रार्थना सुनी जा रही है, तो क्यों न मैं ईश्वर से यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता माँग लूँ ? उसने ऐसा ही किया। उसने प्रार्थना कि, एक नई नाव आ जाए जिसमें सवार होकर मैं यहाँ से बाहर निकल सकूँ। तत्काल नाव प्रकट हुई और पुत्र उसमें सवार होकर बाहर निकलने लगा।
तभी एक आकाशवाणी हुई, बेटा तुम अकेले जा रहे हो? अपने पिता को साथ नहीं लोगे। पुत्र ने कहा, उनको छोड़ो, प्रार्थना तो उन्होंने भी की, लेकिन आपने उनकी एक भी नहीं सुनी। शायद उनका मन पवित्र नहीं है, तो उन्हें इसका फल भोगने दो ना ? आकाशवाणी ने कहा, क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे पिता ने क्या प्रार्थना की? पुत्र बोला, नहीं।
आकाशवाणी बोली तो सुनो, तुम्हारे पिता ने एक ही प्रार्थना की... हे भगवन! मेरा पुत्र आपसे जो भी माँगे, उसे दे देना क्योंकि मैं उसे दुःख में हरगिज़ नहीं देख सकता औऱ अगर मरने की बारी आए तो मेरी मौत पहले हो और जो कुछ तुम्हें मिल रहा है उन्हीं की प्रार्थना का परिणाम है। पुत्र बहुत शर्मिंदा हो गया।
सज्जनों! हमें जो भी सुख, प्रसिद्धि, मान, यश, धन, संपत्ति और सुविधाएं मिल रही है उसके पीछे किसी अपने की प्रार्थना और शक्ति जरूर होती है लेकिन हम नादान रहकर अपने अभिमान वश इस सबको अपनी उपलब्धि मानने की भूल करते रहते हैं और जब ज्ञान होता है तो असलियत का पता लगने पर सिर्फ़ पछताना पड़ता है।
हम चाह कर भी अपने माता-पिता का ऋण नहीं चुका सकते हैं। एक पिता ही ऐसा होता है जो अपने पुत्र को ऊच्चाईयों पर पहुँचाना चाहता है। पर पुत्र मां बाप को बोझ समझते हैं। इसलिए आप हमेशा जरुरतमंदों की सहायता करते रहिये। सदैव प्रसन्न रहिये - जो प्राप्त है, पर्याप्त है।जिसका मन मस्त है - उसके पास समस्त है।
जमाना बदल गया है
झूठ और सच का
दिवाला निकल गया है
आलोचना में भी झूठ है
प्रशंसा सूखा ठूंठ है
न प्रशंसा में खुशी
न आलोचना में दुखी
अपना राह खुद बनाओ
बुद्धि का कमाल दिखाओ
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका दंगों के बाद, हम अपने देश के हर गांव में देशभक्तों द्वारा निर्मित लोकतांत्रिक ताकतों का निर्माण करें। दंगे और अराजकता, नेपाल संसद का दहन। ऐसी घटना किसी भी देश को आर्थिक रूप से कम से कम 10 साल पीछे धकेलने के लिए काफी है। रोजाना कमाने वालों को तुरंत सड़क पर लाकर खड़ा कर देती है। कल श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, और आज... नेपाल...। अगला भूटान, भारत..??। अगर हम यह सोचें कि ये महज संयोग हैं, तो यह बहुत बड़ी भूल है। यह सब किसी योजना की चमक-दमक से हो रहा है और कुछ विदेशी ताकतें यह देशों को अपने कब्जे में ले रही हैं।
2014 में मोदी किसी संयोग से जीत गये थे, और 2019 में हमारे हाथों में एक कमजोर सरकार बनेगी और उन अंतरराष्ट्रीय ताकतों का समर्थन करने वाली कुछ आंतरिक ताकतों को उम्मीद थी कि भारत पर हमारी पकड़ फिर से स्थापित हो जायेगी। लेकिन 2019 में, वे ताकतें इस बात को पचा नहीं पायी कि मोदी पहले से ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता में लौटे हैं।
इसीलिए उपर्युक्त देशों में जिस प्रकार की अराजकता हुई/हो रही है, वैसी ही अराजकता इस देश में भी पैदा हुई है और देश को अस्थिर करने के षड्यंत्र विशेषकर 2019 के बाद से बढ़ गये हैं। कुछ अंतरराष्ट्रीय शक्तियां, जिन्हें भारत का विकास बर्दाश्त नहीं है, उन्होंने आंतरिक शत्रुओं के साथ मिलकर ऐसी स्थिति पैदा करने का कई बार प्रयास किया है।
इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान, प्रदर्शनकारियों ने उन्हें चाहे जितना भी उकसाया हो, एनडीए मोदी सरकार शांत रही और उसने पुलिस फायरिंग या सेना बुलाने का सहारा नहीं लिया, बल्कि प्रदर्शनकारियों के खुद ही अपना विरोध प्रदर्शन खत्म करने का इंतजार किया। मोदी के प्रशंसकों ने भी मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की कि उसने विरोध करने वालों या उनके पीछे की ताकतों के खिलाफ सख्त कार्रवाई किये बिना, बहुत नरम रुख अपनाया।
इन विरोध प्रदर्शनों को भड़काने वालों की यही मंशा है। आम लोगों और मोदी समर्थकों में असंतोष पैदा करने और मोदी विरोधी माहौल बनाने के लिए, यानी अगर पुलिस गोलीबारी होती है और किसान या युवा मरते हैं, तो कुछ दुष्ट ताकतों ने उन मौतों का विरोध प्रदर्शनों को और तीव्र व हिंसक बनाने की योजना बनायी है। यही कारण है कि एनडीए सरकार ने सोशल मीडिया के जरिए अपने समर्थकों द्वारा डाले जा रहे दबाव के बावजूद संयम बनाये रखा है और रणनीतिक रूप से शांतिपूर्ण तरीकों से विरोध प्रदर्शनों का सामना किया है और उन्हें दबा दिया है।
लेकिन, हर दिन एक जैसा नहीं होता। अगर हम रोजाना बहुत सावधानी से गाड़ी चलायें, तो भी दुर्घटना होने की संभावना हमेशा बनी रहती है। इसलिए गाड़ी चलाते समय आलस्य ठीक नहीं है। साथ ही, सरकार चाहे कितने भी आंदोलन कुशलता से निपटा ले, यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार हर बार आंदोलनकारियों के खिलाफ सफल होगी। तो सुरक्षा मार्ग क्या है।
इसलिए, हमारे आम लोगों को अपनी संपत्ति, बीवी-बच्चों की रक्षा के लिए चौबीसों घंटे सतर्क रहना चाहिए और देशभक्ति से ओतप्रोत होना चाहिए। ऐसी चिंता की घड़ी में, हमारी पहली जिÞम्मेदारी अपनी संपत्ति और अपने परिवार के सदस्यों की रक्षा करना है। कुछ लोग सोच रहे हैं कि अगर एनडीए मोदी सरकार बांग्लादेश, नेपाल जैसे आंदोलनों के कारण, एनडीए, मोदी या भाजपा के खिलाफ नफरत के कारण सत्ता से गिर जाए, तो बस इतना ही काफी होगा। अगर ऐसा सचमुच होता है और मोदी सत्ता खो देते हैं, तो उन्हें कुछ नहीं खोना पड़ेगा।
लेकिन देश में मौजूद विनाशकारी ताकतें इन चिंताओं को रोककर सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंचाती हैं। अगर अर्थव्यवस्था अकल्पनीय तरीके से ढह जाती है, तो रोजाना कमाई पर गुजारा करने वाले छोटे व्यापारी और मजदूर अपनी नौकरियां खोकर सड़क पर आ जायेंगे आम लोग। हिंसक घटनाओं में वे अपनी संपत्ति, जैसे स्कूटर, कार और घर, गँवा देते हैं। अपनों को खोने की भी संभावना रहती है। क्योंकि भीड़तंत्री लोगों में विवेक नहीं होता।
घटनाक्रम के प्रति सजग रहें और सावधान रहें। देश में ऐसी परिस्थितियां न आयें, इसके लिए आइये, हर गांव के देशभक्तों के साथ मिलकर ग्राम रक्षा दल बनायें। आइये, युवाओं को अच्छाई और बुराई की जानकारी दें और उनके मन में यह सही ज्ञान डालें कि देश में सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान न पहुंचायें।
1990 में, विदेशी देशों की प्रेरणा और उनके आर्थिक सहयोग से राजशाही के विरुद्ध बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाया गया। इसके परिणामस्वरूप, संसदीय लोकतंत्र भी अस्तित्व में रहा और राजशाही भी चलती रही। वर्ष 2000 के बाद, एक और चिंता उत्पन्न हुई जिसके परिणामस्वरूप राजशाही व्यवस्था को हटा दिया गया और प्रत्यक्ष संसदीय प्रणाली डेमोक्रेसी के नाम पर पड़ोसी देश के हाथों में कठपुतली सरकार आ गयी। उनका औपनिवेशिक शासन जारी है। यह सच है कि नेपाल सैकड़ों पहाड़ों से सारे संसाधन ले लिया जा रहा है।
इस स्थिति को देखते हुए, कुछ नेपाली लोग, जिन्हें लगा कि पुरानी राजशाही व्यवस्था उनके लिए बेहतर है, सड़कों पर उतर आये और अपनी राय व्यक्त की। आज नेपाल गंभीर संकट में है क्योंकि अब डीप स्टेट के नाम से दूसरे देशों के अस्तित्व को चुनौती देने के लिए शुरू की गयी एक व्यवस्था ने उन देशों को लूटा और अस्थिर किया है।
वर्तमान में नेपाल में काठमांडू के मेयर... बालेन शाह उनको नेपाल के भावी प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद है। नेपाल में जेन-जेड विरोध प्रदर्शनों के पीछे विदेशियों के हाथ में यही ताकत है। बालेन शाह सिविल इंजीनियर... पॉप सिंगर... पद्मा ग्रुप आफ कंपनीज के संयुक्त प्रबंध निदेशक।
न्यूयॉर्क टाइम्स ने उनके बारे में काफी कुछ लिखा है। उसी न्यूयॉर्क टाइम्स ने पहले अरविंद केजरीवाल के बारे में भी काफी कुछ लिखा था... न्यूयॉर्क टाइम्स डीप स्टेट के माउथपीस।
क्या आप समझते हैं कि वह किसके हाथों में हैं! कई देशों को अस्थिर करने वाली डीप स्टेट शक्तियां भारत में भी उथल-पुथल मचा रही हैं। भारत का लोकतंत्र, जिसने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, इतना मजबूत है कि सरकार, सैन्य बल और देशभक्त शहर एवं ग्रामीण जनता किसी भी आंदोलन से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए तैयार हैं। (लेखक राष्ट्रीय गोरक्षा प्रमुख हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। पूरे संसार में अपने पूर्वजों के स्मरण करने और श्रृद्धांजलि अर्पित करने की परंपरा है। लेकिन भारत में अपने पूर्वजों के स्मरण की यह पितृपक्ष की अवधि व्यक्तित्व निर्माण, कुटुंब महत्ता और प्रकृति से समन्वय की अद्भुत अवधि है। वस्तुत: भारतीय और पश्चिमी चिंतन में एक आधारभूत अंतर है। पश्चिमी चिंतन केवल वाह्य जगत अर्थात भौतिक सृष्टि तक सीमित है जबकि भारतीय चिंतन लौकिक से अधिक अलौकिक सृष्टि तक व्यापक है।
विकास के लिये जितना जोर वाह्य शक्ति और साधनों पर दिया जाता है उससे अधिक आंतरिक ऊर्जा के संचार पर दिया जाता है। इसे हम सनातन परंपरा के सभी सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक समागमों से समझ सकते हैं और यही विशेषता पूर्वजों के स्मरण के लिये पितृपक्ष के इन दिनों की है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक की पूरी दिनचर्या आंतरिक ऊर्जा जाग्रत करने और आरोग्य शक्ति अर्जित करने की अद्भुत प्रक्रिया है। जबकि इसके कर्मकांड कुटुम्ब समन्वय और प्रकृति से समन्वय बनाकर पर्यावरण संरक्षण के निमित्त हैं।
पितृपक्ष की दिनचर्या पर चर्चा करने से पहले इन तीन बिन्दुओं को समझना आवश्यक है। पहली व्यक्ति के अवचेतन की शक्ति, दूसरी आंतरिक ऊर्जा और तीसरी कुटुम्बिक शक्ति एवं ऊर्जा। आंतरिक ऊर्जा और अवचेतन की शक्ति जाग्रत करने के लिये एकाग्रता चाहिए। ऐसी एकाग्रता जिसमें मन के साथ सभी ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियों संयुक्त हों। इसके लिए पितृपक्ष में ब्रह्म मुहूर्त में उठना, सूर्योदय से पूर्व नदी या सरोवर पर स्नान करके सूर्य को जल अर्पित करने का विधान बनाया गया।
घर से नदी या सरोवर जाने में दिवंगत पूर्वजों का स्मरण रहता है। इससे चित्त में एकाग्रता आती है। स्नान करके लौटने में सबका स्मरण बना रहता है। इतनी देर किसी सकारात्मक विचार की एकाग्रता से आत्मशक्ति जाग्रत होती है। यही आत्मशक्ति व्यक्ति पराक्रम और पुरुषार्थ में गुणवत्ता प्रदान करती है। घर आकर पूजन हवन और पांच ग्रास निकालना मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्ति, परिवार और प्रकृति से समन्वय का साधन है। इन पांच ग्रास में मछली, चींटी, कौआ, गाय और कुत्ता होते हैं। अर्थात जलचर, थलचर और नभचर तीनों प्रकार के जीवों के संरक्षण का संदेश है।
पितृपक्ष या पितरों की महत्ता का उल्लेख सभी पुराणों में है । श्रीमद्भागवत की रचना ही पूर्वजों की मुक्ति केलिये मानी जाती है। विस्तृत वर्णन गरुण पुराण में है। पितृपक्ष में दिवंगत कुटुम्बजनों का स्मरण करने को श्राद्ध कहा जाता है। श्रद्धा की केंद्रीभूत चेतना को श्राद्ध कहा जाता है।सबसे पहले पूर्वजों के प्रतीक के रूप में जौं के आटे का एक छोटा पिण्ड बनाया जाता है।
पिंड स्थापित करके पितृ गायत्री मंत्र के साथ 108 बार जल अर्पित किया जाता है। पूजन-अर्पण के बाद इस पिण्ड को पीपल के नीचे रखकर अर्पित किये गये जल को किसी बहते जल स्त्रोत में प्रवाहित कर दिया जाता है। फिर कमसे कम एक अभ्यागत अर्थात आमंत्रित अतिथि को भोजन कराने का विधान हैं। यह माना जाता है कि हमारे परिवार जन भले हमारे बीच से विदा हो गये हैं पर उनकी ऊर्जा अवश्य परिवार में रहती है।
भारतीय वाड्मय में समाज जीवन में अच्छे व्यवहार की सीख देने वाली अनेक कथाएं हैं पर समाज व्यवहारिक रूप से भी अपने प्रेरणादायकों से जुड़ा रहे। इसलिये पितृपक्ष में इन प्रतीकों के माध्यम से समाज को जाग्रत करने का कर्मकांड निर्धारित किया गया है। (लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। रप्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के स्थानीय सेवा केन्द्र चौधरी बागान, हरमू रोड में दीप जला कर उद्घाटन करते हुये डॉ० त्रिवेणी नाथ साहू, उपकुलपति झारखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय ने कहा कि शिक्षक बच्चों को सही मार्ग पर ले जाने वाला मार्गदर्शक होता है, जिसका मार्गदर्शन अभी पर्याप्त नहीं है।
हमें नैतिक ज्ञान देने वाला एक सच्चा मार्गदर्शक परमशिक्षक परमात्मा है, जिनसे हम शुद्ध ज्ञान प्राप्त करते हैं। जिसका ज्ञान ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सिखाया जाता है। कार्यक्रम में जी० एण्ड एच० स्कूल के प्राचार्य दिलीप झा ने कहा कि हर किसी का कोई न कोई गुरु अवश्य होते हैं।
प्रत्येक को अपने जीवन को सुगम व अच्छा बनाने के लिये एक शिक्षक की आवश्यकता है और प्रथम गुरु शिक्षक माता होती हैं। आध्यात्मिक एवं नैतिक रूप से सोचा जाये तो परमात्मा ही हमारे परमशिक्षक हैं।
कार्यक्रम में लाला लाजपत राय पब्लिक स्कूल के प्राचार्य शैलेन्द्र कुमार ने कहा कि किसी भी रूप में शिक्षकों को सम्मान व आदर देना जरूरी है। शिक्षकों को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि उन्हें बच्चों का सर्वांगीण विकास कर अपना योगदान देना होगा।
कार्यक्रम में मैनाक बनर्जी, सहायक प्रोफेसर आर० के० कॉलेज ने कहा कि अच्छे शिक्षक व मार्गदर्शक बनने के लिये पहले स्वयं को सही रखना है नैतिक ज्ञान रखना है। भौतिक जगत में ज्यादा उलझ नहीं जाना है, तभी हम समाज एवं परिवार में बच्चों को अच्छा संस्कार, ज्ञान दे पायेंगे।
कार्यक्रम में स्नेहा राय, सेन्ट्रल एकेडमी स्कूल की प्राचार्या ने कहा कि परमात्मा ही हम सभी का परमशिक्षक है। अच्छे शिक्षक होने के लिये शिक्षक में तीन चीजों का होना आवश्यक है-परमात्मा की शक्ति, संस्कार से युक्त और अनुशासन का। जिसका ज्ञान ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में बताया जाता है।
कार्यक्रम में आनंद कुमार मिज, राजकीय हाई स्कूल बोड़ेया के प्राचार्य ने कहा कि शिक्षक ही बच्चों को सही ज्ञान देकर उन्हें अच्छी जीवन दे सकते हैं या फिर उन्हें उल्टी दिशा का ज्ञान दे सकते हैं, यह शिक्षक की प्रबुद्धता और योग्यता पर निर्भर है।
कार्यक्रम में डॉ० रानी प्रगति प्रसाद, प्रोफेसर एस०ओ०एस० मेमोरियल कॉलेज राँची ने कहा कि हमें बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जिससे बच्चे अंधकार से प्रकाश की ओर जा सके। इसके लिये शिक्षक को स्वयं नशामुक्त रहना चाहिए। दहेज प्रथा को प्रोत्साहन नहीं करना चाहिए।
कार्यक्रम में ब्रह्माकुमारी निर्मला बहन ने कहा कि नये भारत के नव निर्माण में शिक्षकों का एक बहुत ही अहम योगदान है। उन्होंने कहा कि 21वीं सदी के सशक्त भारत के नवनिर्माण अथवा भारत को पुनः विश्व गुरु जैसे सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित करने के लिये केवल कम्प्यूटरयुक्त फैक्ट्री में तीव्र गति से गुणात्मक वस्तुओं का उत्पादन ही पर्याप्त नहीं है।
हमारा वर्तमान संसार भौतिक वस्तुओं के उत्पादन से सम्पन्न हो रहा है परंतु समाज और संसार की व्यवस्था को संचालित करने वाला मानव मन मनोविकारों के दुष्चक्र में फंसकर स्वयं समस्याओं का उत्पादन करने की फैक्ट्री बन गया है। आज हमारे समाज में स्कूल एवं कॉलेज में बच्चों को किताबी जानकारियों ही उपलब्ध कराते हैं, जिससे बच्चों को नैतिक ज्ञान व संस्कार से युक्त ज्ञान का आधारशिला मजबूत नहीं हो पाती।
भारत के नवनिर्माण में हमारे समाज में शिक्षकों के अतिरिक्त परमशिक्षक परमपिता परमात्मा की भी आवश्यकता होनी चाहिए जिससे परमात्मा के सहयोग से मानव मन को पहले विकारों के दुष्चक्रों और अन्य समस्याओं से मुक्त करें, फिर भारत को एक सशक्त देश बनाने की दिशा में कार्य करने की हमें आवश्यकता है।
कार्यक्रम में प्रोफुल्ल कुमार उपप्रधानाचार्य लाला लाजपत राय पब्लिक स्कूल, डॉ० शमीक चटर्जी सहायक प्रोफेसर आर० के० कॉलेज, कल्याणी कुमारी प्राचार्या राजकीय हाई स्कूल, तृप्ति प्रसाद इनर्जी सेंट माइकल स्कूल, अमृता पांडे, सजय बेदी, शिल्पा बेदी, महेन्द्र कुमार, शशांक शर्मा, चन्द्रभूषण, पूजा कुमारी, महेन्द्र कुमार, अशोक सिन्हा सहित अन्य लोग शामिल थे। सभी का नृत्य द्वारा स्वागत हुआ एवं पटटा ओढ़ाकर अभिनंदन हुआ।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। बच्चों का भविष्य बेहतर बनाने में पाठ्यक्रम संबंधी शिक्षण के अलावा भी शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका है। खासकर अपने सहज व्यवहार से स्कूल में बेहतर माहौल निर्मित करने में। जरूरी है कि वह बालमन को समझे। ऐसा वातावरण बनाए जिसमें बच्चा पढ़ाई के साथ जीने का सबक सीखे। नया व लीक से हटकर सीखने में उसकी रुचि पैदा हो। वहीं दो-तरफा संवाद भी सुनिश्चित बनाना शिक्षक का अहम दायित्व है।
सीखने के लिए सहज परिवेश का होना जरूरी है। क्लासरूम हो या स्कूल का परिसर, बच्चों पर पूरे वातावरण का असर पड़ता है। इस माहौल को सहज रखने में शिक्षकों की अहम भूमिका होती है। बालमन को समझने से जुड़ा टीचर्स का नजरिया बहुत अहमियत रखता है। कहते हैं कि बच्चों का भविष्य बनाने में सबसे बड़ी जिम्मेदारी शिक्षकों के हिस्से ही आती है। इस दायित्व का अहम हिस्सा बालमन को समझना ही है। फिर बात चाहे किसी विषय का पाठ पढ़ाने की हो या जिंदगी जीने का सबक समझाने की। टीचर्स के व्यवहार की सहजता बहुत कुछ आसान कर देती है।
बच्चों के मन को समझते हुए शिक्षक उन्हें सहजता से सीखना सिखायें। हमारे यहां पढ़ाई सिर्फ अंकों की दौड़ बनकर रह गयी है। ऐसे में शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को उनके रुचिकर विषयों से जोड़ें। रटने और परीक्षा पास करने की दौड़ से बाहर लाकर, सही मायने में शिक्षित होने की ओर मोड़ें। अध्ययन ही नहीं, समाज का सहज अवलोकन भी बताता है कि शिक्षक अपने विद्यार्थियों में सीखने के प्रति जुनून पैदा करने में हम भूमिका निभा सकते हैं। सकारात्मक शैक्षिक वातावरण बनाकर बालमन पर गहरा प्रभाव डाल सकते हैं।
सार्थक संवाद कर मन को साधना सिखा सकते हैं। इसीलिए टीचर्स बच्चों की कमियों और अच्छाइयों, दोनों पर बात करें। पढ़ाई को बोझ ना बनायें। कहते हैं कि ज्ञान की बातें तो किताबों में लिखी ही होती हैं। इन बातों को सही ढंग से समझाने का काम शिक्षक ही कर सकते हैं। अच्छे विचारों को व्यवहार में उतारने की प्रेरणा सिखाने वालों से ही मिलती है। किसी कला या खेल का प्रशिक्षण हो या पढ़ाई, अध्यापकों का यह सहज सा तरीका ही पढ़ने-सीखने के भाव को सार्थक बनाता है।
आज के दौर में शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे बंधी-बंधाई लीक पर चलने के बजाय बच्चों को नवाचार से जोड़ें। नयी चीजें सीखने को प्रेरित करें। तकनीक से जोड़ते हुए उसका संतुलित उपयोग करने का भाव जगायें। मौजूदा दौर में कृत्रिम सुविधाओं से अटते संसार में बच्चों के भीतर छुपी रचनात्मक प्रतिभा को निखारने का प्रयास बहुत आवश्यक हो चला है।
क्लासरूम में तयशुदा पैटर्न पर चलने के बजाय बच्चों को नया और बेहतर सोचने के लिए मोटिवेट करना जरूरी है। इतना ही नहीं, शिक्षक ही बच्चों को सकारात्मक प्रतिस्पर्धा की ओर मोड़ सकते हैं। ऐसा होने पर बच्चे ना तो बेहतर प्रदर्शन करने पर दिशाहीन होंगे और न ही पीछे रह जाने पर उनका मन डिगेगा।
स्पष्ट है कि ऐसा प्रेरणादायी माहौल बनाने के लिए बच्चों के मन और सोच की दिशा को समझना जरूरी है। इसके लिए शिक्षकों का सहज व्यवहार बहुत जरूरी है। औपचारिकता अध्यापकों को बच्चों के मन के करीब नहीं ला सकती। शिक्षकों और बच्चों का सहज जुड़ाव उनकी प्रतिभा और विचार की दिशा को समझने में मददगार बनता है। बालमन में नई चीजों को समझने और कुछ नया करने की दिलचस्पी जगाता है। अमेरिकी लेखक मार्क वैन डोरेन के अनुसार शिक्षण की कला खोज में सहायता करने की कला है।
हमारे यहां शिक्षकों और बच्चों में बहुत औपचारिकता भी देखने को मिलती है। यह बात क्या, कैसे और क्यों सीखना है की यात्रा में बाधा बनती है। असल में शिक्षक की जिम्मेदारी होती है कि वह बच्चों को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि मन-जीवन संवारने वाले अच्छे संस्कार भी दे। शिक्षकों का काम स्कूली पाठ्यक्रम पूरा करवाना भर नहीं। चर्चित लेखक और स्पोर्ट्स राइटर बॉब टाल्बर्ट के मुताबिक बच्चों को गिनती सिखाना ठीक है, लेकिन उन्हें क्या गिनना है यह सिखाना सबसे अच्छा है।
ऐसे में जिंदगी से जुड़ा पाठ पढ़ाना, बच्चों के व्यवहार और विचारों को तराशना भी टीचर्स की जिम्मेदारी है। बालमन को समझते हुए बच्चों से सकारात्मक ढंग से जुड़ने से इस जिम्मेदारी को निभाना आसान हो जाता है। आपसी समझ की इस बुनियाद पर नयी पीढ़ी के भविष्य की इमारत खड़ी होती है। जीवन को संवारने की राह पकड़ने के मार्ग पर चलते हुए बच्चों को जिंदगी के हर पहलू से जुड़ी सीख सहजता से दी जा सकती है।
स्कूलों में हर तरह की पारिवारिक पृष्ठभूमि से बच्चे आते हैं। हर बच्चा अपने आप में खास होता है। इसीलिए शिक्षकों को संवेदनशीलता के साथ बच्चों को समझना चाहिए। शिक्षकों की बातों का ही नहीं बर्ताव का भी बच्चों पर गहरा असर होता है। कहते भी हैं कि ह्यक्लासरूम की चार दीवारें हो सकती हैं, लेकिन शिक्षक के प्रभाव की कोई सीमा नहीं होती।
यही वजह है कि पढ़ाने-सिखाने के दायित्व का निर्वहन बहुत सधेपन और संवेदनशीलता से होना चाहिए। टीचर्स को अपनी भावनाओं पर काबू रखते हुए बच्चों की भावनाओं को समझने का प्रयास करना चाहिए, ताकि हर बच्चे का संबल बन सकें। कई बार बच्चों के नकारात्मक व्यवहार और सीखने के प्रति उदासीनता की वजह उनके घर का माहौल भी होता है। इसीलिए क्लास में दो-तरफा संवाद जरूरी है। ताकि बच्चे भी अपनी बातें साझा कर सकें।
इस सार्थक संवाद के लिए भी बच्चों के साथ संजीदगी से व्यवहार करना जरूरी है। इतना ही शिक्षकों का यह सहज और संवेदनापूर्ण जज्बा बच्चों को सफलता या असफलता के दौर में भी संभाल सकता है। उनकी सीखने-समझने की क्षमता पर भरोसा बनाये रखता है। ऐसा व्यवहार हर बच्चे के मन में यह भावना जगाता है कि वह अपने क्लासरूम और स्कूल का अहम हिस्सा है। (लेखक एबीएन के सीईओ हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। अपने होश संभालने के बाद से दुनिया के और खासकर के भारत के जिस समाज को मैंने देखा-जाना-समझा और महसूस किया है, उसमें ज्यादातर स्त्रियों को अपने परिवार के लिए किसी अनवरत चलती हुई चक्की की तरह घूमता हुआ ही पाया है और मजा यह कि परिवार के किसी सदस्य को इसका कदापि भान तक भी नहीं होता।
यहां तक कि एक स्त्री भी दूसरी स्त्री की स्थिति को या उसकी मानसिकता को बिलकुल नहीं समझती या फिर समझ कर भी नासमझ बनी रहती है। कुछ भी हो मगर इस प्रकार एक स्त्री के द्वारा ही स्त्री की समस्याओं और दूसरी महत्वपूर्ण बातों को बहुत ही चतुरता पूर्वक बल्कि यूं कहें कि कुटिलता पूर्वक नजरअंदाज कर दिया जाता है, इस प्रकार जो सम्मान एक स्त्री को मिलना चाहिए अपने कुटुंब में उसपर सम्मान उसी परिवार की एक अन्य सदस्य स्त्री अथवा स्त्रियां एकदम से कैंची चला देती हैं।
मैं लगातार यह महसूस करता आया हूं कि घर में काम को लेकर होने वाले लड़ाइयां या किसी एक स्त्री के पक्ष में झुका हुआ माहौल एक दूसरी स्त्री को अक्सर ईर्ष्या भाव में डाल देता है और वह स्त्री अन्य सदस्यों के साथ मिलकर अपने ऊपर भारी पड़ती स्त्री की आलोचना करने लगती है या निंदा करने लगती है।
इसी प्रकार इसका उल्टा भी कई बार सही होता है की एक भारी पड़ती स्त्री या यूं कहें कि एक मजबूत स्त्री अपनी मजबूत स्थिति का भरपूर दुरुपयोग करती है और नाजायज फायदा उठाती है और यहां तक कि वह सामने वालों को नीचा तक दिखाती रहती है, बहुत सी स्त्रियां तो परपीड़क भी हो जातीं है, जो एक प्रकार का रोग है, किंतु जिसको कोई समझ नहीं पाता, बल्कि इसे उस स्त्री-विशेष की विशेषता समझता रहता है। इस प्रकार स्त्रियां अपने ही घर में अपने निंदक पैदा कर लेती हैं।
तो इस प्रकार की जो व्यवस्थाएं घर में स्वत: पैदा हो जाती हैं, उससे घर के पुरुष सदस्य अपने-आप यह समझने लगते हैं कि स्त्रियां तो होती ही ऐसी हैं, क्योंकि अपने-अपने पुरुषों से घर की अन्य स्त्री सदस्यों की चुगली हर रोज रात को एक स्त्री ही किया करती है और इस प्रकार एक घर में दुराव-वैमनस्य होते-होते एक स्थायी फूट का वातावरण तैयार हो जाता है, किंतु चूंकि पुरुष और स्त्री दोनों ने मिलकर ही यह वातावरण तैयार किया होता है इसलिए इस खाई को दूर करने का प्रयास कोई नहीं करता, तो फूट के कारणों पर तो जाने की बात ही बहुत दूर है।
इस प्रकार हम अपनी नासमझी की वजह से या फिर अपनी आंखें बंद करने की वजह से और अपने कच्चे कानों की वजह से हर बार कुछ ऐसी बातों पर विश्वास कर लेते हैं, जो हमारे घर में फूट डालती है। मजेदार बात यह है कि ज्यादातर मामलों में हम अपने परस्पर निकट के लोगों पर भरोसा नहीं करते बल्कि दूर वालों की बात पर भरोसा कर के निकट वालों पर अविश्वास करने लगते हैं। हालांकि यह जरुरी नहीं कि निकट वाला ही सही हो या गलत हो, लेकिन यह भी तो सही नहीं कि दूर वाला सही हो।
तो जीवन में हर जगह अपनी आंखें खुली रखना बहुत न केवल जरूरी होता है, बल्कि अनिवार्य होता है और हम सब इस अनिवार्य अनिवार्यता को जानते ही नहीं। तो फिर हम लगातार गलत सूत्रों पर भरोसा करते चले जाते हैं और अपने घर में अपने ही लोगों के स्वभाव को, यानि कि उनकी विशेषताओं और खामियों तक को नजरअंदाज करते हैं। हमें कम से कम यह तो मालूम ही होना चाहिए कि कौन कैसा है और किस हद तक जा सकता है?
मेरी समझ से स्त्रियों के प्रति सम्मान में कमी का एक बहुत बड़ा कारण स्त्रियां ही रही हैं, क्योंकि स्त्रियों ने दूसरी स्त्रियों को हमेशा प्रतिद्वंद्वी और यहां तक कि शत्रु की नजर से देखा है तथा तदनुरूप ही उनसे बर्ताव करती आयी हैं और इस प्रकार सदियों से पुरुष की नजरों में स्त्री को गिराती चली आ रही है और ऐसी स्त्रियों ने कुछेक तत्कालिक लाभ के लिए जाने या अनजाने स्त्री को एक जींस में परिणत कर दिया है।
हो सकता है मेरी सोच में बहुत से लोगों को आपत्ति लगे, लेकिन मैंने हरगिज-हरगिज लगभग हर घर में यही सब देखा है और रोज देख भी रहा हूं। तो एक बार दुराव की बात शुरू हो जाने पर वह दुराव दोनों ओर से बढ़ता ही चला जाता है, कोई उस दुराव को कम करने का प्रयास बस इसलिए नहीं करता क्योंकि अंतत: सब के सब कानों के कच्चे होते हैं और इस प्रकार वे बातें एक कान से दूसरे कान तक पहुंचती चली जाती हैं, जो सामने वाले ने कभी कही ही नहीं और तब सामान्य बातों के भी मनमाने अर्थ निकाल कर यहां तक कि प्रतिद्वंद्वी के मन के भीतर की भी बातों तक का भी अंदाजा लगा लिया जाता है आपस में शत्रुता पाले बैठे लोगों द्वारा।
फिर इसका इलाज क्या है? एक इलाज तो समझ में आता है कि स्त्री के द्वारा ही स्त्री के सम्मान को इस प्रकार ठेस नहीं पहुंचायी जानी चाहिए और दूसरा है कि पुरुषों को भी अपनी आंखें कम से कम इतनी तो खुली रखनी ही चाहिए कि वह सच को सच की तरह देख सकें और अपने घर में कार्य कर रही और रह रही स्त्रियों के काम को संपूर्णतया वाजिब नजरों से देख सकें और उस पर अपना उचित निर्णय ले सके जब तक यह दोनों बातें नहीं होंगी कोई भी किसी भी स्त्री को उसका सम्मान हरगिज-हरगिज नहीं दिला सकता। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
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