एबीएन एडिटोरियल डेस्क। छात्रों और प्रतियोगी परीक्षार्थियों को भी विधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। लेकिन जानकारी के अभाव में अक्सर परीक्षार्थी या विद्यार्थी इनका इस्तेमाल नहीं करते हैं। अगर उन्हें परीक्षा प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी लगे या तय सुविधा न मिले या फिर भेदभाव हो तो वे निश्चित प्लेटफॉर्म पर उसकी शिकायत कर न्याय प्राप्त कर सकते हैं।
भारत में छात्र और किसी परीक्षा को देने वाले परीक्षार्थी अपनी पढ़ाई और परीक्षा के संबंध में कई तरह के कानूनी और संवैधानिक अधिकारों के मालिक होते हैं। लेकिन ज्यादातर को इस सबके बारे में पता नहीं होता। तो जानना उपयोगी है कि छात्रों और प्रतियोगी परीक्षार्थियों के विधिक और संवैधानिक अधिकार क्या-क्या होते हैं और उन्हें कैसे नीतिगत सुरक्षा में बांटा जा सकता है। परीक्षा प्रक्रिया में गड़बड़ी लगे तो पहले ये कदम उठायें।
अगर छात्रों या विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएं देने वाले परीक्षार्थियों को परीक्षा प्रक्रिया में किसी गड़बड़ी का अहसास हो। जैसे उन्हें लगे कि पेपर लीक हो गया है या जो परिणाम आया है, वो गलत है या किसी भी तरह की परीक्षा में पारदर्शिता की कमी है, तो वे शिकायत करने और अपनी शिकायत के संबंध में न्याय पाने के लिए ये कदम उठा सकते हैं। सबसे पहले वे परीक्षा की आयोजक संस्था, चाहे वह यूपीएससी हो, एसएससी हो, एनटीए हो या पीएससी हो, आधिकारिक शिकायत प्रणाली यानी पोर्टल आदि पर आनलाइन शिकायत दर्ज कराएं। अगर उन्हें इसका पता नहीं है तो परीक्षा भवन में स्थित प्रबंधक के कार्यालय से इसकी जानकारी हासिल कर सकते हैं।
परीक्षा में गड़बड़ी लगे तो दूसरे कदम के रूप में परीक्षार्थी अपने ओएमआरसी या आंसर शीट अथवा मार्किंग विवरण मांगने के लिए आरटीआई आवेदन कर सकते हैं। जबकि तीसरे चरण के रूप में ये छात्र अगर इन्हें लगता है कि पहले दो कदमों से उन्हें संतोषजनक जवाब नहीं मिला, तो वे हाईकोर्ट में पिटीशन अनुच्छेद 226 के तहत या सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल में केस दायर कर सकते हैं, इसका उन्हें कानूनी हक है और चौथे व अंतिम कदम के रूप में पेपर लीक आदि के लिए सीबीआई/ईडी जांच की मांग की जा सकती है।
ऐसी स्थिति में पहले कदम के रूप में उस संस्थान की जहां से आपका संबंध हो, ग्रीवांस रिड्रेसल सेल्फ/यूजीसी कम्पलेंट पोर्टल पर शिकायत करें। दूसरे कदम के रूप में राज्य शिक्षा विभाग या विश्वविद्यालय में इसकी लिखित शिकायत करें। तीसरे कदम के रूप में अगर छात्र पर मानसिक उत्पीड़न/ हिंसा/ भेदभाव हुआ है तो आईपीसी और एससी/ एसटी एट्रोसीटीज एक्ट जैसे कानूनों के तहत एफआईआर दर्ज करायी जा सकती है। चौथे कदम के रूप में फीस और सुविधाओं से जुड़ी समस्याओं के लिए कंज्यूमर कोर्ट में दस्तक दी जा सकती है।
अगर दिव्यांग छात्रों को जरूरी सहूलियत न मिलें इसके लिए पहले कदम के रूप में परीक्षा प्राधिकरण/संस्थान से लिखित शिकायत करें कि आरपीडब्ल्यूडी एक्ट 2016 का पालन नहीं हो रहा। दूसरे कदम के रूप में जिला स्तर पर चीफ कमिशनर फॉर पर्संस विद डिसएबिलिटी को शिकायत भेजें और तीसरे कदम के रूप में जरूरत पड़ने पर हाईकोर्ट में रिट डालकर अतिरिक्त समय स्क्राइब या अन्य सहूलियत की मांग करें।
ऐसी स्थिति में पहले कदम के रूप में छात्र या उसके परिजन मेंटल हेल्थ हेल्पलाइन पर संपर्क करें, जो कि 1800-599-7019- किरण हेल्पलाइन है। दूसरे कदम के रूप में मेंटल हेल्थ केयर अधिनियम 2017 के तहत हर छात्र को मुफ्त काउंसलिंग और इलाज का अधिकार है। अगर संस्थान दबाव बना रहा हो, जैसे असंभव टारगेट, भेदभाव, तो पुलिस या शिक्षा विभाग में शिकायत दर्ज करायें।
ऐसे में पहले कदम के रूप में आधिकारिक उत्तर कुंजी और कटआफ की कॉपी आरटीआई के जरिये प्राप्त करें। दूसरे कदम के रूप में आवश्यक आंसर शीट का रिवैल्यूएशन मांगें और तीसरे कदम के रूप में स्टे आर्डर या रि-एंग्जाम की मांग की जा सकती है।
विशेषकर प्रतियोगी परीक्षा भर्ती विवादों के लिए आरटीआई पोर्टल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल में शिकायत कर सकते हैं। भेदभाव या उत्पीड़न के मामले में नेशनल कमीशन फॉर शिड्यूल कास्ट/ट्राइब/माइनरटीज/वुमन्स, फीस/सुविधा से जुड़े विवाद में कंज्यूमर कोर्ट से मदद मिल सकती है।
भारत में हर छात्र को समान अवसर देना संस्थान की जिम्मेदारी है। चौदह साल तक की उम्र के हर व्यक्ति को मुफ्त शिक्षा का अधिकार है। परीक्षा भर्ती और कॉलेज प्रशासन आदि से जुड़ी सूचनाएं पाने का सबको अधिकार है। भारत में हर छात्र और प्रतियोगी परीक्षार्थी को निष्पक्ष परीक्षा का अधिकार है, उसे समान अवसर व आरक्षण के लाभ का अधिकार है। बता दें कि इस जानकारी को कानूनी मदद, स्रोत के तौरपर नहीं इस्तेमाल किया जा सकता। सिर्फ पाठकों में अपने अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ाने के लिए इसका उपयोग संभव है।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने शताब्दी वर्ष का उत्सव मना रहा है। समाज में संगठन के योगदान और उसके अनुशासन, सेवा व राष्ट्रभाव की भावना को लेकर देशभर में कार्यक्रम आरंभ हुए हैं। लेकिन अभी इस उत्सव की गूंज शुरू ही हुई कि कर्नाटक की राजनीति में एक नया विवाद उठ खड़ा हुआ है। राज्य सरकार के मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे प्रियांक खरगे ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को एक पत्र लिखकर सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, पार्कों और मंदिरों में आरएसएस की शाखाओं और कार्यक्रमों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग की है।
चार अक्टूबर को लिखे गए इस पत्र को मुख्यमंत्री कार्यालय ने 12 अक्टूबर को सार्वजनिक किया। सिद्धारमैया ने मुख्य सचिव शालिनी राजनिश को पत्र भेजकर मामले की जांच और आवश्यक कार्रवाई के निर्देश दे दिये हैं। इससे साफ हो गया कि कर्नाटक सरकार अब संघ के विरुद्ध सख्त रुख अपनाने की तैयारी में है।
प्रियांक खरगे का आरोप है कि आरएसएस सरकारी व सहायता प्राप्त संस्थानों में बिना अनुमति शाखाएं चला रहा है, जहां लाठी लेकर नारेबाजी की जाती है और बच्चों के दिमाग में नफरत भरी जाती है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि ये गतिविधियां संविधान की भावना और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ हैं, इसलिए इन पर तत्काल रोक लगायी जाये।
दरअसल, ये पहली बार नहीं जब प्रियांक ने ऐसा बयान दिया हो। जुलाई 2025 में उन्होंने कहा था कि अगर कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आयी तो कानूनी प्रक्रिया के तहत पूरे देश में आरएसएस पर प्रतिबंध लगायेगी। उस वक्त भी भाजपा ने इसे हिंदू-विरोधी मानसिकता का प्रतीक बताया था। अब वही विचार कर्नाटक में सरकारी दस्तावेज का रूप लेता दिख रहा है।
इस संबंध में उल्लेखित है कि आरएसएस का इतिहास इस बात का गवाह है कि प्रतिबंधों ने इसे कमजोर नहीं किया, यह ऐसे कठिन दौर में अत्यधिक संगठित रूप में ही लोगों के सामने आया है। आपको बतादें कि संघ पर पहला प्रतिबंध (1948): महात्मा गांधी की हत्या के बाद। नाथूराम गोडसे के कथित संबंध के नाम पर 4 फरवरी 1948 को बैन लगाया गया था, लेकिन 18 महीने बाद जांच में संघ निर्दोष पाया गया और 12 जुलाई 1949 को बैन हटा। दूसरा प्रतिबंध (1975) में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में लगा।
उस दौरान आरएसएस को अवैध घोषित किया गया, हजारों स्वयंसेवक जेल में ठूंस दिये गये, लेकिन इमरजेंसी खत्म होते ही संघ पहले से अधिक सक्रिय रूप में लौटा और जनसंघ-जनता पार्टी के पुनर्गठन में निर्णायक भूमिका निभाई। तीसरा प्रतिबंध (1992) में बाबरी विध्वंस के बाद पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने आरएसएस, विहिप और बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाया, जो 1993 में अदालत से हट गया क्योंकि कोई ठोस सबूत नहीं मिला।
हर बार संघ ने शांतिपूर्ण तरीके से जवाब दिया। उसने कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया, बल्कि समाज सेवा और राष्ट्रनिर्माण के कार्यों से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चीन युद्ध से लेकर कोविड महामारी तक, हर संकट में संघ के स्वयंसेवक देश के आम जन की सेवा करते हुए और उन्हें हर संभव मदद पहुंचाते हुए ही नजर आये हैं। वे राहत कार्यों में अग्रिम पंक्ति में रहते हैं। ऐसे में ये सवाल स्वाभाविक तौर पर उठता है कि क्या कर्नाटक सरकार सचमुच संवैधानिक आधार पर कदम उठा रही है या फिर यह एक वैचारिक द्वेष से प्रेरित राजनीतिक रणनीति है?
सोशल मीडिया पर पिछले कुछ दिनों से #बैन आरएसएस ट्रेंड कर रहा है। वामपंथी संगठनों, सेकुलर लॉबी और इस्लामी कट्टरपंथी समूहों से जुड़े कई हैंडल इस अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। आरोप वही पुराने हैं; फासीवाद, संघी मानसिकता, हिंदू राष्ट्रवाद। दिलचस्प यह है कि इसी दौरान कुछ निष्क्रिय या प्रतिबंधित संगठनों से जुड़े लोग भी इस मुहिम को हवा दे रहे हैं। जिस तरह यह ट्रेंड संगठित तरीके से फैलाया गया है, वह यह संकेत देता है कि यह केवल प्रियांक खरगे का व्यक्तिगत विचार नहीं बल्कि एक सुविचारित वैचारिक मोर्चा है।
संघ की शाखाएं वर्षों से सार्वजनिक स्थानों पर लगती रही हैं; स्कूल के मैदान, पार्क या मंदिर परिसर, जहां न तो राजनीति होती है और न ही कोई प्रचार। वहां अनुशासन, योग, देशभक्ति और समाज सेवा की भावना सिखाई जाती है। फिर भी इन्हें निशाने पर लेना बताता है कि समस्या गतिविधियों से नहीं, विचार से है। संघ की विचारधारा सर्वे भवन्तु सुखिन: के साथ ही एकता और आत्मगौरव की भावना जगाती है। यही वह विचार है जो विभाजित राजनीति के लिए सबसे बड़ा खतरा बनता हुआ दिखाई देता है। कर्नाटक में कांग्रेसी सरकार का ये कदम बता रहा है कि कांग्रेस और वामपंथी तबके को संघ की सामाजिक पकड़ असहज करती है। जबकि संघ न तो चुनाव लड़ता है, न सत्ता की होड़ करता है। उसकी ताकत आम जन से सीधे संवाद और समाज सेवा से आती है, जो राजनीति से परे है।
दरअसल, कर्नाटक में कांग्रेस सरकार इस समय कई मोर्चों पर घिरी है, बढ़ते महिला अपराध, बिजली संकट, पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार, और डीके शिवकुमार व सिद्धारमैया के बीच नेतृत्व संघर्ष जैसी चुनौतियां सामने हैं। ऐसे में आरएसएस पर बैन का मुद्दा सरकार के लिए ध्यान भटकाने का उपकरण बनता दिख रहा है।
यहां आरएसएस का प्रभाव इस तथ्य से स्पष्ट है कि उसने अनुसूचित जाति, जनजाति, दलित, पिछड़े और महिलाओं को जोड़ने में उल्लेखनीय काम किया है। समरसता अभियान, सेवा भारती, विविध शिक्षण संस्थान और वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठनों के जरिए संघ ने समाज के उस हिस्से तक पहुंच बनायी, जहां राजनीति कभी नहीं पहुंच सकी। यही कारण है कि संघ के विरुद्ध जब भी राजनीतिक बवंडर उठता है, वह वैचारिक रूप से कमजोर पड़ जाता है। संघ की शाखाएं किसी पार्टी का मंच नहीं है, यह तो राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशाला हैं।
कर्नाटक में यदि सरकारी आदेशों के जरिए संघ की शाखाओं या गतिविधियों पर रोक लगाने की कोशिश होती है, तो यह लोकतंत्र के मूलाधारों पर चोट होगी। संघ कोई अवैध संगठन नहीं, बल्कि भारत के संविधान के तहत एक सामाजिक संगठन है। ऐसे में प्रशासनिक दबाव डालकर उसकी गतिविधियां रोकना अघोषित आपातकाल जैसा कदम माना जायेगा। इसे सेकुलरिज्म के नाम पर वैचारिक आतंक कहा जा सकता है; जहां असहमति को देशद्रोह और राष्ट्रवाद को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है।
इतिहास यही कहता है कि जब भी संघ को दबाने की कोशिश हुई, जनता ने उसे और अपनाया। यह संगठन सत्ता या विरोध से नहीं, समाज की स्वीकृति से जीवित है। कर्नाटक में यदि कांग्रेस यह मानती है कि वैचारिक दमन से संघ को कमजोर किया जा सकता है, तो यह वही भूल दोहराना होगा जो 1948, 1975 और 1992 में की जा चुकी है। यदि किसी लोकतांत्रिक राज्य में समाज सेवा करने वाले संगठन को खतरा मान लिया जाए, तो यह लोकतंत्र की पराजय होगी, न कि उसकी सुरक्षा। संघ का सौ साल का इतिहास भी यही गवाही देता है कि जो संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत की आत्मा से जुड़ा है, उसे कोई राजनीतिक तूफान मिटा नहीं सकता है। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। मैथिली ठाकुर के महज चुनाव लड़ने की चर्चा है और प्याली में तूफान सा खड़ा हो गया है। मैथिली चुनाव लड़ें या नहीं, यह उनका व्यक्तिगत अधिकार है। हर आदमी को यह हक है कि वह किस क्षेत्र में कहां, कैसे काम करे। सिर्फ इस मुद्दे पर किसी का विरोध अनुचित है।
अगर मैथिली मिथिला में आकर चुनाव लड़ने की इच्छा रखती हैं, तो आलोचना नहीं हो। मैथिली ठाकुर ने लाइव टीवी शो और अन्य कार्यक्रमों की बदौलत अपार सफलता हासिल की। यहां मिथिला में उनके कार्यक्रम कम होना या मिथिला से दूरी बरतना बहस का विषय नहीं हो सकता। वैसे भी किसी का भी चुनाव लड़ना उसका व्यक्तिगत अधिकार है। अगर पार्टी नीति तय करती है तो यह उसके दायरे की बात है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं। उस व्यक्ति पर सवाल खड़ा नहीं कर सकते हैं।
असल में आज का मिथिला समाज खुद विरोधाभास से जूझ रहा है। मिथिला के गांव वीरान पड़े हैं। मुद्दे कम हैं। यह भी सच्चाई है कि मिथिला के लिए दिल्ली पटना से ज्यादा दिल के करीब हो गया है। समाज ही व्यक्तिवादी हो चला है। जिस समाज में विचार, आहार और व्यवहार की बात होती थी, वहां सिर्फ एक व्यक्ति के चुनाव लड़ने या नहीं लड़ने की बात पर गजब की उथल-पुथल है।
हाल के दिनों में किसी के व्यक्तिगत अधिकार पर इस तरह की ट्रोलिंग किसी और समाज में नहीं दिखती। यहां वक्त के हिसाब से समाज में बदलाव की गुंजाइश कम है। मैथिली की पहल पर उनके कम उम्र के होने की भी लोग दुहाई दे रहे हैं। लेकिन ये ऐसे लोग हैं, जो नीति तय करते हैं और विचार के धनी माने जाते हैं। यहां अब उनके विचारों से थोड़ी असहजता होती है। मिथिला को लेकर चिंता भी।
बुनियादी सवाल है कि अगर कोई अपना भाग्य खुद लिखने की कोशिश कर रहा है तो आप ट्रोलर की भूमिका क्यों निभा रहे हैं। किसी के व्यक्तिगत निर्णय पर आप और हम क्यों फैसला दें। हां, वोट देते समय चयन का मुद्दा आपका होगा।
मैथिली की पहल का स्वागत करना चाहिए। मैथिली ठाकुर या किसी बड़ी शख्सियत द्वारा चुनाव लड़ने की पहल का स्वागत हो। क्योंकि वक्त अगर उन्हें सलामी देगा तो आपको भी झुकना होगा। नहीं तो कई जीनियस पहले भी गुमनामी के अंधेरे में खो चुके हैं। ऐसे में किसी को ट्रोल कर आप खुद ही अपनी हताशा दिखा रहे हैं। वैसे भी बुलंदी चंद दिनों की मेहमान होती है।
बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है
बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है
~मुनव्वर राणा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। पूरी दुनिया में 9 अक्टूबर को विश्व डाक दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 1874 में इसी दिन यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन का गठन करने के लिए स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में 22 देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था। 1969 में जापान के टाकियो शहर में आयोजित सम्मेलन में विश्व डाक दिवस के रूप में इसी दिन को चयन किये जाने की घोषणा की गयी थी। 01 जुलाई 1876 को भारत यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन का सदस्य बनने वाला भारत पहला एशियाई देश था। जनसंख्या और अंतरराष्ट्रीय मेल ट्रैफिक के आधार पर भारत शुरू से ही प्रथम श्रेणी का सदस्य रहा है।
भारत में डाकघर का इतिहास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के समय से शुरू होता है जब रॉबर्ट क्लाइव ने 1766 में पहली डाक व्यवस्था स्थापित की। वॉरेन हेस्टिंग्स ने 1774 में कोलकाता में पहला डाकघर खोला और 1854 में लॉर्ड डलहौजी ने भारत में एक राष्ट्रीय डाक सेवा की शुरूआत की। आज भारतीय डाक दुनिया के सबसे बड़े डाक नेटवर्क में से एक है जो बैंकिंग, बीमा और अन्य सेवाओं के साथ आम आदमी का भरोसेमंद साथी है। 01 अक्टूबर 1854 को भारतीय डाक विभाग की स्थापना के साथ भारत में पहली बार डाक टिकट भी जारी किया गया था।
विश्व डाक दिवस का मकसद देश के सामाजिक और आर्थिक विकास में डाक क्षेत्र के योगदान के बारे में जागरुकता पैदा करना है। दुनिया भर में प्रत्येक वर्ष 150 से ज्यादा देशों में विविध तरीकों से विश्व डाक दिवस आयोजित किया जाता है। भारतीय डाक प्रणाली का जो उन्नत और परिष्कृत स्वरूप आज हमारे सामने है, वह लंबे सफर की देन है। अंग्रेजों ने डेढ़ सौ साल पहले अलग-अलग हिस्सों में अपने तरीके से चल रही डाक व्यवस्था को एक सूत्र में पिरोने की पहल की थी। उन्होने भारतीय डाक को नया रूप-रंग दिया। पर अंग्रेजों की डाक प्रणाली उनके सामरिक और व्यापारिक हितों पर केंद्रित थी।
हमारे देश में पहले डाक विभाग का इतना अधिक महत्व था कि फिल्मों तक में डाकिये पर कई मशहूर गाने फिल्माये गये हैं। मगर अब नजारा पूरी तरह से बदल चुका है। इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव ने डाक विभाग के महत्व को बहुत कम कर दिया है। आज लोगों ने हाथों से चिट्ठियां लिखना छोड़ दिया है। अब ई-मेल, वाट्सएप व सोशल मीडिया, इंटरनेट के माध्यमों से मिनटो में लोगो में संदेशों का आदान प्रदान हो जाता है।
आज डाक में लोगों की चिट्ठियां तो गिनती की ही आती है। मनीआर्डर भी बन्द ही हो गये हैं। मगर डाक से अन्य सरकारी विभागों से संबंधित कागजात, बैंकों व अन्य संस्थानो के प्रपत्र काफी संख्या में आने से डाक विभाग का महत्व फिर से एक बार बढ़ गया है। डाक विभाग कई दशकों तक देश के अंदर ही नहीं बल्कि एक देश से दूसरे देश तक सूचना पहुंचाने का सर्वाधिक विश्वसनीय, सुगम और सस्ता साधन रहा है। लेकिन इस क्षेत्र में निजी कम्पनियों के बढ़ते दबदबे और फिर सूचना तकनीक के नये माध्यमों के प्रसार के कारण डाक विभाग की भूमिका लगातार कम होती गयी है। वैसे इसकी प्रासंगिकता पूरी दुनिया में आज भी बरकरार है।
भारत में डाक विभाग के महत्व को मशहूर शायर निदा फाजली के शेर-सीधा-साधा डाकिया जादू करे महान, एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान से समझा जा सकता है। शायर निदा फाजली ने जब यह शेर लिखा था उस वक्त देश में संदेश पहुंचाने का डाक विभाग ही एकमात्र साधन था। डाकिये के थैले में से निकलने वाली चिट्ठी पढ़कर कोई खुश होता था तो कोई दुखी। कुछ वर्ष पूर्व तक डाक विभाग हमारे जनजीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होता था। गांव में जब डाकिया आता था तो बच्चे-बूढ़े सभी उसके साथ डाक घर की तरफ इस उत्सुकता से चल पड़ते थे कि उनके भी किसी परिजन की चिट्ठी आयेगी।
डाकिया जब नाम लेकर एक-एक चिट्ठी बांटना शुरू करता तो लोग अपनी या अपने पड़ोसी की चिट्ठी ले लेते व उसके घर जाकर उस चिट्ठी को बड़े चाव से देते थे। उस वक्त शिक्षा का प्रसार ना होने से अक्सर महिलायें अनपढ़ होती थी। इसलिए चिट्ठी लाने वालों से ही चिट्ठियां पढ़वाती भी थी और लिखवाती भी थी। कई बार चिट्ठी पढ़ने-लिखने वाले बच्चों को ईनाम स्वरूप कुछ पैसा या खाने को गुड़, पताशे भी मिल जाया करते थे। इसी लालच में बच्चे ज्यादा से ज्यादा घरों में चिट्ठियां पहुंचाने का प्रयास करते थे।
उस वक्त गांवों में बैक शाखा नहीं होती थी। इस कारण बाहर कमाने गये लोग अपने घर पैसा भी डाक में मनीआर्डर से ही भेजते थे। मनीआर्डर देने डाकिया स्वयं प्राप्तकर्ता के घर जाता था व भुगतान के वक्त एक गवाह के भी हस्ताक्षर करवाता था। डाक विभाग अति आवश्यक संदेश को तार के माध्यम से भेजता था। तार की दर अधिक होने से उसमें संक्षिप्त व जरूरी बातें ही लिखी जाती थी। तार भी साधारण और जरूरी होते थे। जरूरी तार की दर सामान्य से दोगुनी होती थी। देश में पहली बार 11 फरवरी 1855 को शुरू हुई तार सेवा को सरकार ने 15 जुलाई 2013 से बन्द कर दिया है। इसके साथ ही डाक विभाग ने रजिस्टर्ड डाक सेवा को भी 01 अक्टूबर 2025 से स्पीड पोस्ट में विलय कर दिया है।
भारतीय डाक विभाग पिनकोड नंबर (पोस्टल इंडेक्स नंबर) के आधार पर देश में डाक वितरण का कार्य करता है। पिनकोड नंबर का प्रारम्भ 15 अगस्त 1972 को किया गया था। इसके अंतर्गत डाक विभाग द्वारा देश को नो भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा गया है। संख्या 1 से 8 तक भौगोलिक क्षेत्र हैं व संख्या 9 सेना की डाक सेवा को आवंटित किया गया है। पिन कोड की पहली संख्या क्षेत्र दूसरी संख्या उपक्षेत्र, तीसरी संख्या जिले को दर्शाती है। अंतिम तीन संख्या उस जिले के विशिष्ट डाकघर को दर्शाती है।
डाक विभाग के अंतर्गत केंद्र सरकार ने इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक (आईपीपीबी) शुरू किया है। देश के हर व्यक्ति के पास बैंकिंग सुविधाएं पहुंचाने के क्रम में यह एक बड़ा विकल्प होगा। इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक ने देशभर में बैंकिंग सेवाएं शुरू कर दी है। आने वाले दिनों में इस के माध्यम से देश का सबसे बड़ा बैंकिंग नेटवर्क अस्तित्व में आयेगा, जिसकी हर गांव तक मौजूदगी होगी। इन सेवाओं के लिए पोस्ट विभाग के 11000 कर्मचारी घर-घर जाकर लोगों को बैंकिंग सेवाएं देंगे।
बदलते हुए तकनीकी दौर में दुनिया भर की डाक व्यवस्थाओं ने मौजूदा सेवाओं में सुधार करते हुए खुद को नयी तकनीकी सेवाओं के साथ जोड़ा है। डाक, पार्सल, पत्रों को गंतव्य तक पहुंचाने के लिए एक्सप्रेस सेवाएं शुरू की हैं। डाक घरों द्वारा मुहैया करायी जानेवाली वित्तीय सेवाओं को भी आधुनिक तकनीक से जोड़ा गया है। दुनियाभर में इस समय 55 से भी ज्यादा विभिन्न प्रकार की पोस्टल ई-सेवाएं उपलब्ध हैं। भविष्य में पोस्टल ई-सेवाओं की संख्या और अधिक बढ़ायी जायेगी। डाक विभाग से 82 फीसदी वैश्विक आबादी को होम डिलीवरी का फायदा मिलता है।
भारत की आजादी के बाद हमारी डाक प्रणाली को आम आदमी की जरूरतों को केंद्र में रख कर विकसित करने का नया दौर शुरू हुआ था। नियोजित विकास प्रक्रिया ने ही भारतीय डाक को दुनिया की सबसे बड़ी और बेहतरीन डाक प्रणाली बनाया है। राष्ट्र निर्माण में भी डाक विभाग ने ऐतिहासिक भूमिका निभायी है। जिससे इसकी उपयोगिता लगातार बनी हुई है। आज भी आम आदमी डाकघरों और डाकिये पर भरोसा करता है। तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद देश में आम जनता का इतना विश्वास कोई और संस्था नहीं अर्जित कर सकी है। यह स्थिति कुछ सालों में नहीं बनी है, इसके पीछे डाक विभाग के कार्मिकों का बरसों का श्रम और लगातार प्रदान की जा रही सेवा छिपी है। (लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। हजारीबाग की धरती हमेशा से अपनी सादगी, अध्यात्म और आस्था के लिए जानी जाती रही है। इस धरती ने अनेक संत, विद्वान और कर्मयोगी जन्मे हैं जिन्होंने न केवल समाज का मार्गदर्शन किया बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी दिशा दी। इसी पावन धरती से एक स्वर उठा था जय माई, जो धीरे-धीरे श्रद्धा, विश्वास और साधना का प्रतीक बन गया। यह स्वर था पंडित अवधेश पाठक का, जिनका जीवन एक दीपक की तरह रहा जो ज्ञान, भक्ति और सेवा के प्रकाश से संसार को आलोकित करता रहा।
आज जब वह स्वर स्मृतियों में विलीन हो चुका है, तब ऐसा लगता है जैसे हजारीबाग की मिट्टी से उठी एक गूंज सन्नाटे में समा गयी हो। परंतु यह गूंज केवल ध्वनि नहीं थी, यह उस आत्मा की पुकार थी जिसने धर्म को मानवता के साथ जोड़ा और जीवन को साधना का पर्याय बना दिया। ज्योतिषाचार्य सह शिक्षाविद् डॉ. साकेत कुमार पाठक ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि अवधेश पाठक का जीवन केवल एक व्यक्ति की कथा नहीं, बल्कि एक ऐसी परंपरा का परिचय है, जो भारतीय संस्कृति की आत्मा में बसी हुई है।
उनका जन्म 12 मई 1957 को टाटीझरिया प्रखंड के खम्भवा गांव में हुआ, और यह दिन इस क्षेत्र के लिए केवल एक बालक के जन्म का नहीं, बल्कि एक युग की शुरूआत का प्रतीक बन गया। उनके पिता श्री मोहन पाठक स्वयं एक ज्योतिषाचार्य, तांत्रिक साधक और अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अपने पुत्र के भीतर जो संस्कार रोपे, वही आगे चलकर समाज में एक ऐसी छवि के रूप में प्रकट हुए, जहां ज्ञान, आस्था और सेवा का अद्भुत संगम दिखाई देता था। डॉ. पाठक ने कहा कि अवधेश पाठक जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था।
वे केवल एक ज्योतिषाचार्य नहीं, बल्कि एक दार्शनिक, कलाकार, समाजसेवी और मानवीय संवेदनाओं के मूर्त रूप थे। उनका जीवन कर्मकांड या पंडिताई के दायरे में सीमित नहीं था। वे जीवन को एक साधना मानते थे और हर कार्य को ईश्वर की सेवा का माध्यम समझते थे। उनके मुख से निकला जय माई केवल एक उद्घोष नहीं था, वह उनके अस्तित्व का प्रतीक था। उनके लिए माई शक्ति थी, आस्था थी, मातृत्व था और समर्पण का स्वरूप थी। जब वे किसी कठिन निर्णय के क्षण में जय माई कहते, तो वह केवल शब्द नहीं, बल्कि एक आत्मिक ऊर्जा का उद्गार होता था।
उन्होंने कहा कि अवधेश पाठक जी का प्रभाव केवल अपने गांव या राज्य तक सीमित नहीं था। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और मुंबई जैसे महानगरों तक उनका नाम श्रद्धा से लिया जाता था। फिल्म इंडस्ट्री में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। वहाँ भी वे ज्योतिष के मार्गदर्शक के रूप में नहीं, बल्कि एक परामर्शदाता और सांस्कृतिक दूत के रूप में देखे जाते थे। उन्होंने अनेक फिल्मों और धारावाहिकों के नाम सुझाए, शुभ मुहूर्त तय किये और कई कलाकारों के जीवन में सही दिशा देने का कार्य किया। बड़े-बड़े निर्माता और अभिनेता उनके निर्णयों को अंतिम मानते थे।
कई बार फिल्म सेट पर जब विवाद या तनाव होता, तब उनका शांत, संयमित और मधुर व्यवहार वातावरण को शीतल बना देता था। उनके स्नेहपूर्ण शब्द सबके मन में विश्वास का संचार करते थे। यही कारण था कि इंडस्ट्री में लोग उन्हें केवल पंडित जी नहीं, बल्कि पथप्रदर्शक कहा करते थे। डॉ. पाठक ने भावुक होकर कहा कि अवधेश पाठक की सबसे बड़ी विशेषता थी— उनका सर्वधर्म समभाव। वे मंदिर में आरती करते थे, तो मजार पर इबादत में भी उतनी ही श्रद्धा से सिर झुकाते थे। वे गुरुद्वारे में गुरु वाणी सुनते थे, और चर्च में उपदेशों को आत्मसात करते थे।
उनके लिए धर्म का अर्थ सीमाएं खड़ी करना नहीं, बल्कि मनुष्यता के भीतर प्रेम, करुणा और शांति की अनुभूति कराना था। वे मानते थे कि धर्म यदि विभाजन करे तो वह धर्म नहीं, बल्कि अज्ञान है। उनके जीवन का यही दर्शन उन्हें समाज के हर वर्ग के बीच सम्मानित बनाता था। डॉ. पाठक ने कहा कि अवधेश पाठक की ज्योतिषीय प्रतिभा अतुलनीय थी। ग्रहों और नक्षत्रों की गणना उनके लिए केवल गणित नहीं, एक गूढ़ आध्यात्मिक संवाद था। वे कहा करते थे कि ग्रह जीवन का लेखा नहीं लिखते, वे केवल चेतावनी देते हैं। भाग्य नहीं, बुद्धि और श्रद्धा ही मनुष्य को दिशा देती है।
उनके इस दृष्टिकोण ने ज्योतिष को अंधविश्वास से मुक्त कर वैज्ञानिकता और मानवता के धरातल पर प्रतिष्ठित किया। कई बार जब लोग उनके पास समस्याएँ लेकर आते, तो वे समाधान के साथ जीवन का नया दृष्टिकोण भी दे जाते। वे कहते, समस्या कोई बाहरी शक्ति नहीं, वह हमारे भीतर के संतुलन की परीक्षा है। इसीलिए उनके पास जाकर लौटने वाला व्यक्ति केवल भविष्यवाणी नहीं, आत्मबल लेकर लौटता था। उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा, पर उन्होंने कभी हार नहीं मानी। बड़े बेटे की असमय मृत्यु ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया, लेकिन उन्होंने अपने दु:ख को भक्ति में रूपांतरित कर दिया।
प्रमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों ने उन्हें घेरा, गैंगरिन के कारण पैर की अंगुली तक खोनी पड़ी, परंतु उनकी आस्था ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। वे कहा करते थे कि शरीर कष्ट में हो सकता है, लेकिन आत्मा को कोई रोग नहीं छू सकता। हर पीड़ा में उनका संबल था जय माई । यही वह उद्घोष था जिसने उन्हें हर संकट से पार लगाया। अवधेश पाठक का जीवन आधुनिक समाज के लिए एक आदर्श है, जहां आस्था को विज्ञान से और धर्म को मानवता से जोड़ना आवश्यक हो गया है।
उन्होंने यह दिखाया कि ज्योतिष केवल भविष्य बताने की कला नहीं, बल्कि जीवन को अनुशासित और उद्देश्यपूर्ण बनाने की विद्या है। वे शिक्षा और संस्कार को सबसे बड़ा धर्म मानते थे। अपने बच्चों में उन्होंने वही संस्कार रोपे, जो उन्हें अपने पिता से मिले थे सत्य, संयम और सेवा। उन्होंने कहा कि अवधेश पाठक जी का जीवन यह भी सिखाता है कि महानता केवल प्रसिद्धि से नहीं आती, बल्कि विनम्रता और समर्पण से बनती है। वे चाहे किसी बड़े मंच पर हों या छोटे गाँव की चौपाल में, उनके व्यवहार में कभी भेद नहीं होता था। वे सभी से समान आत्मीयता से मिलते।
यही कारण था कि वे हर वर्ग, हर समुदाय और हर पीढ़ी के लिए समान रूप से प्रिय रहे। उनके जीवन में विरोध नहीं, संवाद था, आलोचना नहीं, स्वीकार था, और दूरी नहीं, अपनत्व था। कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी उनका योगदान अमूल्य रहा। उन्होंने कई हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में अभिनय किया। उनके अभिनय में वही सरलता थी जो उनके जीवन में थी। उनके चेहरे पर भाव नहीं, दर्शन झलकता था। वे मंच पर नहीं, समाज में अभिनय करते थे सादगी, श्रद्धा और सेवा के अभिनय का। उनके लिए अभिनय एक कला नहीं, बल्कि जीवन की अभिव्यक्ति थी।
वे कहा करते थे कि कला तभी दिव्य है जब वह मनुष्य के भीतर की अच्छाई को जगाये। अवधेश पाठक जैसे व्यक्तित्व दुर्लभ होते हैं। उन्होंने समाज को यह सिखाया कि ज्ञान और आस्था, विज्ञान और भक्ति, तर्क और संवेदना ये सब विरोधी नहीं, एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। उन्होंने इन सबको अपने जीवन में पिरोया और एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो आज की पीढ़ी के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। आज जब हम उन्हें स्मरण करते हैं, तो यह केवल शोक का क्षण नहीं, आत्मचिंतन का भी अवसर है।
हम ऐसे युग में हैं जहां लोग धर्म के नाम पर विभाजित हो रहे हैं, जहां विश्वास पर संदेह और संवाद पर शोर का पहरा है। ऐसे समय में अवधेश पाठक जैसे लोग हमें याद दिलाते हैं कि सच्चा धर्म वह है जो जोड़ता है, न कि तोड़ता है। वे कहते थे कि मनुष्य की सबसे बड़ी पूजा है किसी के दु:ख को कम करना। यही उनका जीवन-मंत्र था। डॉ. पाठक ने कहा कि उन्होंने स्वयं अवधेश पाठक जी के सान्निध्य में जीवन के अनेक गूढ़ अर्थ सीखे। वे कहते हैं कि अवधेश जी से मैंने यह सीखा कि विद्वता तब तक अधूरी है जब तक उसमें करुणा का भाव न हो। उनके सान्निध्य में बैठना किसी ग्रंथ के अध्ययन से कम नहीं था।
उनके एक-एक शब्द में अनुभव की रोशनी होती थी, जो जीवन की दिशा दिखा जाती थी। उन्होंने कहा कि आज जब हम जय माई कहते हैं, तो वह केवल श्रद्धा का शब्द नहीं, बल्कि उस आस्था की ध्वनि है जो अवधेश पाठक के जीवन से निकलकर हमारे भीतर बस गयी है। उनका जाना हमारे लिए एक युगांत है, परंतु उनकी स्मृति, उनकी विचारधारा और उनकी वाणी अमर है। वे शरीर से चले गए, पर विचार बनकर इस समाज के हर आस्तिक, हर साधक और हर कर्मशील व्यक्ति के भीतर जीवित हैं। हजारीबाग की यह भूमि, जिसने उन्हें जन्म दिया, अब उनकी स्मृतियों की रक्षक बन गयी है।
जब भी इस मिट्टी पर कोई दीप जलेगा, कोई आरती गूंजेगी, तो उसमें जय माई? की वही अनुगूंज सुनाई देगी जो कभी अवधेश पाठक की वाणी से निकलती थी। वे केवल अपने परिवार या अनुयायियों के नहीं, बल्कि इस पूरे क्षेत्र की आत्मा थे। डॉ. पाठक ने अंत में कहा कि अवधेश पाठक जी का जाना एक रिक्तता है, पर उनकी शिक्षाएं हमारे भीतर ऊर्जा बनकर जीवित हैं। उन्होंने हमें यह सिखाया कि धर्म का अर्थ भय नहीं, प्रेम है, साधना का अर्थ पलायन नहीं, कर्म है और भक्ति का अर्थ केवल नमस्कार नहीं, सेवा है। वे कहते थे कि ईश्वर वही है जो तुम्हारे भीतर है, उसे खोजो और उसका आभार मानो।
यही उनका अंतिम संदेश था। आज जब लोग उन्हें याद करते हैं, तो आंसुओं में भी मुस्कान है, क्योंकि उनके जीवन की सार्थकता दु:ख से नहीं, प्रेरणा से मापी जाती है। वे चले गए, पर उनके विचार अब भी हवा में तैरते हैं, मंदिर की घंटियों में गूंजते हैं, आरती के दीपों में झिलमिलाते हैं और हर उस हृदय में बसते हैं जहां सच्ची भक्ति जीवित है। हजारीबाग की धरती साक्षी है उस युग की, जब एक व्यक्ति ने अपने जीवन से यह दिखाया कि आस्था और विज्ञान, पूजा और सेवा, संस्कार और आधुनिकता सब एक साथ चल सकते हैं।
अवधेश पाठक ने हमें यह सिखाया कि सच्ची महानता ज्ञान में नहीं, विनम्रता में है; पद में नहीं, सेवा में है और पूजा में नहीं, मानवता में है। आज जब यह संपादकीय शब्दों में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है, तो यह केवल स्मृति नहीं, एक प्रतिज्ञा भी है कि हम उनके दिखाए मार्ग पर चलेंगे, उनके विचारों को जीवित रखेंगे, और जय माई की उस गूंज को आने वाले समय तक संजोये रखेंगे। उनकी आत्मा को शांति मिले, और उनका आदर्श इस समाज में सदा प्रकाश बनकर चमकता रहे। हजारीबाग ने उन्हें जन्म दिया, पर अब पूरा भारत उन्हें स्मरण करेगा, क्योंकि ऐसे लोग शरीर से भले ही चले जायें, पर आत्मा से कभी नहीं मरते।
राष्ट्र साधना के 100 वर्ष
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। 100 वर्ष पूर्व विजयदशमी के महापर्व पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई थी। ये हजारों वर्षों से चली आ रही उस परंपरा का पुनर्स्थापन था, जिसमें राष्ट्र चेतना समय-समय पर उस युग की चुनौतियों का सामना करने के लिए, नए-नए अवतारों में प्रकट होती है। इस युग में संघ उसी अनादि राष्ट्र चेतना का पुण्य अवतार है। ये हमारी पीढ़ी के स्वयंसेवकों का सौभाग्य है कि हमें संघ के शताब्दी वर्ष जैसा महान अवसर देखने मिल रहा है। मैं इस अवसर पर राष्ट्रसेवा के संकल्प को समर्पित कोटि-कोटि स्वयंसेवकों को शुभकामनाएं देता हूं।
मैं संघ के संस्थापक, हम सभी के आदर्श…परम पूज्य डॉक्टर हेडगेवार जी के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। संघ की 100 वर्षों की इस गौरवमयी यात्रा की स्मृति में भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट और स्मृति सिक्के भी जारी किए हैं। जिस तरह विशाल नदियों के किनारे मानव सभ्यताएं पनपती हैं, उसी तरह संघ के किनारे भी सैकड़ों जीवन पुष्पित-पल्लवित हुए हैं।
जैसे एक नदी जिन रास्तों से बहती हैं, उन क्षेत्रों को अपने जल से समृद्ध करती हैं, वैसे ही संघ ने इस देश के हर क्षेत्र, समाज के हर आयाम को स्पर्श किया है। जिस तरह एक नदी कई धाराओं में ख़ुद को प्रकट करती है, संघ की यात्रा भी ऐसी ही है। संघ के अलग-अलग संगठन भी जीवन के हर पक्ष से जुड़कर राष्ट्र की सेवा करते हैं। शिक्षा, कृषि, समाज कल्याण, आदिवासी कल्याण,महिला सशक्तिकरण, समाज जीवन के ऐसे कई क्षेत्रों में संघ निरंतर कार्य करता रहा है। विविध क्षेत्र में काम करने वाले हर संगठन का उद्देश्य एक ही है, भाव एक ही है....राष्ट्र प्रथम
अपने गठन के बाद से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र निर्माण का विराट उद्देश्य लेकर चला। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संघ ने व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण रास्ता चुना और इस चलने के लिए जो कार्यपद्धति चुनी वो थी नित्य-नियमित चलने वाली शाखाएं। संघ शाखा का मैदान, एक ऐसी प्रेरणा भूमि है, जहां से स्वयंसेवक की अहम् से वयं की यात्रा शुरू होती है। संघ की शाखाएं…व्यक्ति निर्माण की यज्ञवेदी हैं।
राष्ट्र निर्माण का महान उद्देश्य, व्यक्ति निर्माण का स्पष्ट पथ और शाखा जैसी सरल, जीवंत कार्यपद्धति यही संघ की सौ वर्षों की यात्रा का आधार बने। इन्हीं स्तंभों पर खड़े होकर संघ ने लाखों स्वयंसेवकों को गढ़ा, जो विभिन्न क्षेत्रों में देश को आगे बढ़ा रहे हैं।
संघ जब से अस्तित्व में आया…संघ के लिए देश की प्राथमिकता ही उसकी अपनी प्राथमिकता रही।
आज़ादी की लड़ाई के समय परम पूज्य डॉक्टर हेडगेवार जी समेत अनेक कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया, डॉक्टर साहब कई बार जेल तक गए। आजादी की लड़ाई में कितने ही स्वतन्त्रता सेनानियों को संघ संरक्षण देता रहा…उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करता रहा। आजादी के बाद भी संघ निरंतर राष्ट्र साधना में लगा रहा। इस यात्रा में संघ के खिलाफ साजिशें भी हुईं, संघ को कुचलने का प्रयास भी हुआ।
ऋषितुल्य परम पूज्य गुरु जी को झूठे केस में फंसाया गया। लेकिन संघ के स्वयंसेवकों ने कभी कटुता को स्थान नहीं दिया। क्योंकि वो जानते है, हम समाज से अलग नहीं हैं, समाज हमसे ही तो बना है। समाज के साथ एकात्मता और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति आस्था ने संघ के स्वयंसेवकों को हर संकट में स्थित प्रज्ञ रखा है…समाज के प्रति संवेदनशील बनाए रखा है।
प्रारंभ से संघ… राष्ट्रभक्ति और सेवा का पर्याय रहा है। जब विभाजन की पीड़ा ने लाखों परिवारों को बेघर कर दिया, तब स्वयंसेवकों ने शरणार्थियों की सेवा की। हर आपदा में संघ के स्वयंसेवक अपने सीमित संसाधनों के साथ सबसे आगे खड़े रहते रहे। यह केवल राहत नहीं थी, यह राष्ट्र की आत्मा को संबल देने का कार्य था। खुद कष्ट उठाकर दूसरों के दुख हरना...ये हर स्वयंसेवक की पहचान है। आज भी प्राकृतिक आपदा में हर जगह स्वयंसेवक सबसे पहले पहुंचने वालों में से एक रहते हैं।
अपनी 100 वर्षों की इस यात्रा में, संघ ने समाज के अलग-अलग वर्गों में आत्मबोध जगाया…स्वाभिमान जगाया। संघ देश के उन क्षेत्रों में भी कार्य करता रहा है..जो दुर्गम हैं…जहाँ पहुँचना सबसे कठिन है। संघ...दशकों से आदिवासी परंपराओं, आदिवासी रीति-रिवाज, आदिवासी मूल्यों को सहेजने-संवारने में अपना सहयोग देता रहा है...अपना कर्तव्य निभा रहा है। आज सेवा भारती...विद्या भारती, एकल विद्यालय...वनवासी कल्याण आश्रम...आदिवासी समाज के सशक्तिकरण का स्तंभ बनकर उभरे हैं।
समाज में सदियों से घर कर चुकी जो बीमारियाँ हैं, जो ऊंच-नीच की भावना है, जो कुप्रथाएं हैं, ये हिन्दू समाज की बहुत बड़ी चुनौती रही हैं। ये एक ऐसी गंभीर चिंता है, जिस पर संघ लगातार काम करता रहा है। डॉक्टर साहब से लेकर आज तक, संघ की हर महान विभूति ने, हर सर-संघचालक ने भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। परम पूज्य गुरु जी ने निरंतर न हिन्दू पतितो भवेत् की भावना को आगे बढ़ाया। पूज्य बाला साहब देवरस जी कहते थे- छुआछूत अगर पाप नहीं, तो दुनिया में कोई पाप नहीं! सरसंघचालक रहते हुए पूज्य रज्जू भैया जी और पूज्य सुदर्शन जी ने भी इसी भावना को आगे बढ़ाया। वर्तमान सरसंघचालक आदरणीय मोहन भागवत जी ने भी समरसता के लिए समाज के सामने एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान का स्पष्ट लक्ष्य रखा है।
जब 100 साल पहले संघ अस्तित्व में आया था तो उस समय की आवश्यकताएं, उस समय के संघर्ष कुछ और थे। लेकिन आज 100 वर्षों बाद जब भारत विकसित होने की तरफ बढ़ रहा है तब आज के समय की चुनौतियां अलग हैं, संघर्ष अलग हैं। दूसरे देशों पर आर्थिक निर्भरता, हमारी एकता को तोड़ने की साजिशें, डेमोग्राफी में बदलाव के षड़यंत्र, हमारी सरकार इन चुनौतियों से तेजी से निपट रही है।
मुझे ये खुशी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इन चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस रोडमैप भी बनाया है। संघ के पंच परिवर्तन, स्व बोध, सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन, नागरिक शिष्टाचार और पर्यावरण ये संकल्प हर स्वयंसेवक के लिए देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को परास्त करने की बहुत बड़ी प्रेरणा हैं। स्व बोध की भावना का उद्देश्य गुलामी की मानसिकता से मुक्त होकर अपनी विरासत पर गर्व और स्वदेशी के मूल संकल्प को आगे बढ़ाना है। सामाजिक समरसता के जरिए वंचित को वरीयता देकर सामाजिक न्याय की स्थापना का प्रण है। आज हमारी सामाजिक समरसता को घुसपैठियों के कारण डेमोग्राफी में आ रहे बदलाव से भी बड़ी चुनौती मिल रही है। देश ने भी इससे निपटने के लिए डेमोग्राफी मिशन की घोषणा की है। हमें कुटुम्ब प्रबोधन यानी परिवार संस्कृति और मूल्यों को भी मजबूत बनाना है।
नागरिक शिष्टाचार के जरिए नागरिक कर्तव्य का बोध हर देशवासी में भरना है। इन सबके साथ अपने पर्यावरण की रक्षा करते हुये आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित करना है। अपने इन संकल्पों को लेकर संघ अब अगली शताब्दी की यात्रा शुरू कर रहा है। 2047 के विकसित भारत में संघ का हर योगदान, देश की ऊर्जा बढ़ाएगा, देश को प्रेरित करेगा। पुन: प्रत्येक स्वयंसेवक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। भारतीय सिनेमा के इस सदी के महान अभिनय कलाकार अमिताभ बच्चन से पूछा गया कि आपकी सबसे बड़ी ताकत क्या है? उन्होंने जवाब दिया कि मुझे तीन स्रोतों से शक्ति प्राप्त होती है। पहला माता-पिता के द्वारा प्राप्त संस्कार से भावनाएं एवं संवेदनाएं उनकी व्यक्तिगत शक्ति है। दूसरी ताकत का स्रोत उनका परिवार है और तीसरा स्रोत उनका अपना समाज है।
शक्ति प्राप्त करने के अन्य स्रोत और भी हो सकते हैं। परंतु उन शक्तियों का उपयोग ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। शक्ति से ही परिश्रम किया जा सकता है और परिश्रम ही वह माध्यम है जिसके बल पर निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। छत्रपति शिवाजी महाराज को भावनात्मक एवं संवेदनात्मक शक्ति (विचार शक्ति) अपने गुरुदेव समर्थ रामदास से प्राप्त होती थी।
उनका परिवार उनका संबल था तो तत्कालीन समाज का नैतिक समर्थन उनकी सबसे बड़ी शक्ति थी; और इन्हीं शक्तियों के आधार पर उन्होंने स्वराज की स्थापना की। हमारा व्यक्तिगत विचार शक्ति, परिवार की शक्ति और समाज की शक्ति कितना सबल एवं महत्वपूर्ण है इस बात को हमें समझनी चाहिए। सामने यदि कोई बड़ा लक्ष्य निर्धारित किया गया हो तो समाज के समर्थन, सहयोग एवं समर्पण के बिना नहीं प्राप्त किया जा सकता है। अपने-अपने कर्तव्यों का भार उठाना ही पड़ेगा क्योंकि इसके सिवा कोई अतिरिक्त मार्ग होता ही नहीं है।
आज के समय में संयुक्त परिवार की अवधारणा/ कॉन्सेप्ट थोड़ा कम व्यावहारिक रह गया है। परंतु परिवार के प्रति भावनात्मक जुड़ाव में कमी चिंता का विषय है। हम जहां भी रहे हमारा अपना परिवार का दायरा जो कुछ भी हो परंतु भावनात्मक स्वरूप में संयुक्त परिवार से जुड़े रहने में उतनी कठिनाई भी नहीं है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और लेखक हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। हजारीबाग जिले के जाने-माने युवा शल्य चिकित्सा डॉ अंकित कुमार जयपुरियार का चयन वर्ष 2025 के लिए अमेरिकन कॉलेज आफ सर्जंस की मानद फैलोशिप के लिए किया गया है। विश्व भर में चिकित्सा क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए अमेरिकन कॉलेज आॅफ सर्जंस की ओर से दिया जाने वाला यह सबसे बड़ा सम्मान है। वे झारखंड के पहले चिकित्सक हैं, जिनका इस मानद फेलोशिप के लिए चयन हुआ है। निश्चित तौर पर यह संपूर्ण झारखंड के लिए एक गौरव की बात है।
डॉ अंकित कुमार एक युवा चिकित्सा होने के साथ नरम दिल, सहज और सरल हैं। वे अपने पेशे के प्रति पूरी तरह और निष्ठावान और समर्पित है। कोई भी रोगी एक बार जब उनसे मिल लेता है, उनके कुशल व्यवहार और चेहरे पर मुस्कान देखकर ही उसकी बीमारी आधी दूर हो जाती है। डॉ अंकित अपने हर एक रोगियों से बहुत ही सत्कार के साथ मिलते हैं। वे रोगियों की जांच बहुत ही धैर्य और ध्यान के साथ करते हैं। वे कुछ ही मिनटों में रोगी से बातचीत कर उनकी बीमारी से संबंधित कई बातें पूछ कर रोग का पता लगा लेते हैं।
इसके बाद ही वे उचित जांच, परामर्श और दवा लिखते हैं। डॉ अंकित कुमार का परामर्श और दवा किसी भी रोगी के लिए वरदान साबित हो जाता है। रोगी जल्द ही ठीक हो जाता है। डॉ अंकित कुमार विश्व चिकित्सा क्षेत्र में क्या-क्या नये अनुसंधान हो रहे हैं? इस निमित्त समय निकालकर चिकित्सा अनुसंधान से संबंधित पुस्तकें पढ़ते रहते हैं। वे नियमित रूप से नई चिकित्सा से संबंधित पुस्तकें मंगा कर अपने ज्ञान का विस्तार करते रहते हैं।
उनका इस बात पर जोर होता है कि कम से कम खर्चे में नये से नये आधुनिक चिकित्सा उपकरण से रोगियों की शल्य चिकित्सा की जाये। खासकर गरीब मरीजों को और बेहतर चिकित्सा के लिए अन्य प्रदेशों में जाना न पड़े। वे गरीब मरीजों के लिए एक वरदान साबित हो रहे हैं। आज भागमभाग भरी जिंदगी में पैसे कमाने की होड़ में दुनिया बहुत तेजी के साथ आगे बढ़ती चली जा रही है। जहां मानवीयता के लिए बहुत कम जगह बच पा रही है। दूसरी शब्दों में कहें तो मानवीयता तार तार होकर रह जा रही है।
ऐसे विषम परिस्थिति में डॉ अंकित कुमार जयपुरियार जैसे नरम दिल चिकित्सक का होना चिकित्सा जगत के लिए एक बड़ी उपलब्धि के समान है। डॉक्टर अंकित कुमार पैसे कमाने की इस हौड़ से अपने को बहुत दूर रखा है। उनके लिए चिकित्सा एक सेवा के समान है। वे हर पल इस प्रयास में जुटे रहते हैं कि जैसे भी हो, रोगी के चेहरे पर फिर से मुस्कान आ जाए। यह लिखते हुए बेहद दु:ख होता है कि चिकित्सा सेवा एक व्यवसाय के रूप में परिवर्तित चुका है। जहां सिर्फ और सिर्फ पैसे का ही बोल बाला होता है।
यह रूपांतरण चिकित्सा जगत के लिए उचित नहीं है। दुनिया चिकित्सकों को दूसरे भगवान के रूप में दर्जा देते हैं। समाज में चिकित्सकों का बहुत ही मान और प्रतिष्ठा है। इस बात को अधिकांश चिकित्सक भूल चुके हैं। आज भी बहुत सारे लोग पुराने चिकित्सकों का नाम बहुत ही गर्व के साथ इसलिए लेते हैं कि उस जमाने के चिकित्सक पैसे के पीछे नहीं भागते थे बल्कि रोगी कैसे ठीक हो, इस पर जोर दिया करते थे। डॉ अंकित कुमार जयपुरियार ने चिकित्सा सेवा की उस परंपरा को फिर से जीवंत करने का प्रयास किया है। डॉ अंकित का यह कदम अन्य चिकित्सकों के लिए अनुकरणीय और प्रेरणादाई सिद्ध होगा।
डॉ अंकित कुमार का परिवार विगत तीन पीढियां से चिकित्सा सेवा जुड़े रहे हैं। यह किसी भी परिवार के लिए गर्व करने वाली बात होती है। डॉ अंकित कुमार के पिता डॉ नवेंदु शंकर जयपुरियार होम्योपैथ के एक सफल चिकित्सा के रूप में जाने जाते हैं। एक ओर जहां महंगी हो रही अंग्रेजी दवाओं और साईड दुष्प्रभावों से रोगी परेशान हो रहे हैं। डॉ नवेंदु शंकर जयपुरियार ऐसे रोगियों के लिए एक वरदान साबित हो रहे हैं।
वे हजारीबाग में होम्योपैथी की चिकित्सा के माध्यम से नित सैकड़ों रोगियों के चेहरे पर मुस्कान लौटा रहे हैं। यहां यह लिखते हुए गर्व होता है कि कई बड़े-बड़े एमबीबीएस चिकित्सक भी डॉ नवेंदु जयपुरिया के परामर्श पर होम्यो पैथ की दवा खाकर ठीक हो रहे हैं। डॉ नवेंदु शंकर जयपुरियार ने भी इस पेशे को सेवा के रूप में लेकर गौरवान्वित किया है। डॉ अंकित कुमार के दादा स्वर्गीय डॉ गिरजा शंकर प्रसाद भी होम्योपैथी के एक जाने माने डॉक्टर थे। वे प्रतिदिन सैकड़ो की संख्या में रोगियों को देखा करते थे।
वे कई रोगियों से कुछ भी नहीं लिया करते थे बल्कि उनकी सेवा नि:शुल्क दिया करते थे। उन्होंने भी इस पेशे को समाज सेवा से के रूप में लिया था। आज भी लोग उनका नाम बड़े ही गर्व के साथ लेते हैं। वे एक चिकित्सक के साथ वरिष्ठ समाजसेवी भी थे। डॉ अंकित का जन्म हजारीबाग में हुआ। उन्होंने हजारीबाग के संत जेवियर स्कूल से 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसके बाद उन्होंने रांची डीपीएस से प्लस टू की पढ़ाई पूरी की थी। उनके माता-पिता चाहते थे कि अंकित भी एक डॉक्टर बने। अंकित की भी इच्छा थी कि वे अपने दादा और पिता की तरह ही एक डॉक्टर बनें। इसलिए उन्होंने कोयंबटूर गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज में दाखिला हेतु मेडिकल परीक्षा दी।
वे इस मेडिकल परीक्षा में सफल होकर कोयंबतूर मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस और एमएस की डिग्री हासिल की। अभी डॉ अंकित जयपुरियार अनुबंध पर हजारीबाग जिले के विष्णुगढ़ में मेडिकल आॅफिसर के पद पर कार्यरत हैं। यहां से पहले वे देश के प्रतिष्ठित अस्पताल सीएमसी, कोयंबटूर, ओएनसी हॉस्पिटल, चेन्नई और उसके बाद रायपुर में सीडीटीएच हॉस्पिटल में बतौर सर्जन काफी वक्त तक काम करने के बाद अपने शहर में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। डॉ अंकित कुमार जयपुरियार को लेप्रोस्कोपी और इंडोस्कोपी से आपरेशन में महारत हासिल है।
हजारीबाग जैसे छोटे शहर में जहां चिकित्सीय संसाधन भी कम हैं। डॉ अंकित इन चुनौतियों का सामना करते हुए ऐसे ऐसे आपरेशन करने में सफल हो रहे हैं, जिन आपरेशन करने में लाखों के खर्च आते हैं। डॉ अमित की इस विलक्षण चिकित्सीय प्रतिभा को देखते हुए अन्य शल्य चिकित्सक भी परामर्श के लिए उन्हें अपने अपने अपने क्लीनिक में बुलाते रहते हैं। यह लिखते हुए गर्व होता है कि डॉ अंकित झारखंड के एकलौते चिकित्सक हैं, जिनका चयन अमेरिकन कॉलेज आफ सर्जंस की मानद फेलोशिप के लिए हुआ हुआ है।
वर्ष 2024 में विभिन्न देशों के आठ चिकित्सकों में मात्र एक भारतीय चिकित्सा डॉ शैलेश विनायक श्रीखंडे का हुआ था। डॉ अंकित झारखंड के पहले चिकित्सक हैं, जिनका इस मानद फैलोशिप के लिए चयन हुआ है। यह मानद फेलोशिप प्राप्त करने के लिए डॉ अंकित को कई परीक्षाओं के दौर से गुजरना पड़ा। डॉ अंकित ने इस मानद फेलोशिप के लिये अपने चयन के बाबत बताया कि छोटे शहर में आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के कारण उन्हें चुना गया। आगे उन्होंने कहा कि इस मानद फेलोशिप चयन की प्रक्रिया काफी कठिन रही। पहले तो छह- सात माह आॅनलाइन परीक्षा ली गयी। इसके बाद मार्च में दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसरों ने साक्षात्कार लिया।
उसके बाद अंतिम साक्षात्कार अमेरिका के चिकित्सक प्रोफेसर द्वारा साक्षात्कार लिया गया। इसके बाद ही उनका मानद फैलोशिप के लिए चयन हुआ। आगे उन्होंने बताया कि मानद फेलोशिप का सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस दौरान मिलनेवाली आधुनिक सर्जरी की ट्रेनिंग है। यह ट्रेनिंग पूरी करने के बाद शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में क्या-क्या नये-नये चिकित्सीय उपकरण इस्तेमाल हो रहे हैं? इसके साथ ही हाल के दिनों में चिकित्सा क्षेत्र में आये बदलावों को जान पाऊंगा। जिसका लाभ मैं झारखंड के रोगियों को दे पाऊंगा। इस नवीनतम चिकित्सीय शल्य ट्रेनिंग के लिए बहुत ही उत्साहित हूं। इसी साल 4 से 7 अक्टूबर तक शिकागो में यह ट्रेनिंग चलेगी। (लेखक वरिष्ठ कथाकार/स्तंभकार हैं। उनका निवास पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825301 और संपर्क नंबर 92347 99550 है।)
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