विचार

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Published / 2021-05-24 14:01:09
सात साल बाद मोदी सरकार की ताकत

एबीएन डेस्क। अगले सप्ताह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की शपथ लिए सात वर्ष पूरे हो जाएंगे। इस पूरी अवधि के बारे में काफी कुछ कहा जा सकता है लेकिन एक बात स्पष्ट है: तीन ऐसी चीजें जिन्होंने अतीत में अर्थव्यवस्था को बेपटरी किया है वे इस बार नदारद रही हैं। पहली, युद्ध। सन 1962-71 के बीच के तीन युद्धों के बाद कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ है। उन तीनों युद्धों की कीमत मुद्रास्फीति, मुद्रा संकट और मंदी के रूप में चुकानी पड़ी थी। मोदी के कार्यकाल में चीन के साथ हुए टकराव ने अर्थव्यवस्था पर असर नहीं डाला। सरकार हालात को लेकर आश्वस्त थी और उसने जीडीपी की तुलना में रक्षा आवंटन कम होने दिया। दूसरा जोखिम है सूखा, जो मोदी सरकार के शुरूआती दो वर्षों में पड़ा। कृषि क्षेत्र में मूल्यवर्द्धन के बावजूद 2014-16 में कमोबेश कोई वृद्धि नहीं हुई। बाद के वर्षों में से अधिकांश वर्षों में प्राय: 4 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर दर्ज की गई। हालांकि यह वृद्धि ज्यादातर पशुपालन और मत्स्यपालन की बदौलत हासिल हुई, न कि फसली खेती से। तथ्य तो यह है कि कृषि और संबद्ध गतिविधियों में खेती की हिस्सेदारी और जीडीपी में भी कृषि की हिस्सेदारी कम हुई है। ऐसे में आर्थिक गतिविधियों पर सूखे का असर भी पहले जैसा नहीं रहा। सूखे वाले दो वर्षों में औसतन 7.5 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर्ज की गई जो मोदी के कार्यकाल के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों में से है। अतीत में अर्थव्यवस्था को बेपटरी करने वाला तीसरा कारक था तेल। तेल की बढ़ती कीमतों के कारण सन 1981 और 1991 में दो बार (इससे पहले 1966 में युद्ध के बाद) देश को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपातकालीन ऋण लेना पड़ा। तेल कीमतों के कारण ही सन 2013 में देश को उन पांच अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया गया था जो अपने विकास के लिए विदेशी पूंजी पर कुछ ज्यादा ही निर्भर थे। मोदी पर तकदीर मेहरबान रही क्योंकि उनके पद संभालते ही तेल कीमतों में भारी कमी आई। उनके पद संभालने के पहले के दो वर्षों में यह दर जहां 110 डॉलर प्रति बैरल थी, वहीं तब से यह दर 60 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है। इससे कारोबारी संतुलन सुधरा, मुद्रास्फीति में कमी आई और सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर कर बढ़ाकर काफी नकदी बटोरी। दूसरे शब्दों में मोदी को किस्मत का साथ मिला। परंतु अब उनकी किस्मत का साथ छूट चुका है और प्रशासनिक चतुराई भी नदारद दिखती है। एक सदी में एक बार आने वाली महामारी ने एक वर्ष से अधिक समय में सरकार को एकदम भ्रमित कर दिया है। बड़े पैमाने पर लोगों की मौत हुई, बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी है और अब एक वर्ष की भारी गिरावट के बाद सुधार की प्रक्रिया भी प्रभावित दिख रही है। अन्य देश भी नाकाम हुए लेकिन मोदी सरकार जिस प्रकार टीकों, जांच किट, आॅक्सीजन और अस्पताल में बिस्तरों के मामले में नाकाम रही है उसके कारण अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक में उसकी तीखी आलोचना हुई। प्रधानमंत्री की कामयाब छवि को नुकसान पहुंचा। जबकि 2016 में नोटबंदी के बाद ऐसी ही अफरातफरी के माहौल में आश्चर्यजनक रूप से वह इससे बचे रहे थे। परंतु अब उनकी छवि कमजोर पड़ चुकी है। आंकड़ों के मुताबिक महामारी की दूसरी लहर के चरम पर पहुंचने के बाद अब प्रशासन और अग्रिम पंक्ति में काम करने वालों को कुछ राहत मिली है। परंतु वैज्ञानिक तीसरी लहर की चेतावनी दे रहे हैं और वह लहर शायद आ चुकी है लेकिन दिख नहीं रही है। ग्रामीण इलाकों में आंकड़े सामने न आने के कारण तबाही का सही दृश्य सामने नहीं आ पा रहा। संक्रमण के मामले शायद जानबूझकर कम बताये जा रहे हैं। ऐसा चिकित्सा बुनियादी ढांचे और प्रशासनिक क्षमता में कमी के कारण हो रहा है। यदि लोग दूरदराज इलाकों में बीमार पड़ें और उनकी मौत हो जाए। उन्हें बालू में दफन कर दिया जाए या नदी में बहा दिया जाए तो भला उनकी गिनती कौन रखेगा? कुछ आंकड़े बताते हैं कि सामान्य मृत्यु दर दोगुनी हो चुकी है। यानी मरने वालों की तादाद आधिकारिक आंकड़ों से कहीं अधिक हैं। मोदी की ताकत क्या है? यह है उनकी ईमानदार छवि। अब तक विपक्ष कोई भी भ्रष्टाचार मोदी या उनके मंत्रियों के उपर सिद्ध नहीं कर सका है। दूसरा खतरनाक मानसिकता भारतीय जनमानस का है जो ज्यादा इंतजार नहीं करता साथ ही विकास पर राजनीति सिर्फ कहने की बात है हर दल आज भी धर्म और जाति संप्रदाय की राजनीति ही कर रहा है ऐसे में मोदी का एजेंडा आज भी उतना ही मजबूत है। क्या मोदी इससे उबर सकते हैं? हां, अगर वे यह दिखाते हैं कि वे केबिन में छिपकर मशविरा देने के बजाय जहाज को तूफान से निकाल सकते हैं। मोदी और उनकी काम करने की शैली मजाक का विषय बन चुकी है। मुख्यमंत्री उन्हें मुंह पर जवाब दे रहे हैं, अदालतें और मीडिया मुखर हो गए हैं। इस समय देश का मिजाज भांपना मुश्किल है। देश क्रुद्ध है या हताश? जो भी हो, मोदी को प्रतिकूल हालात का सामना करना होगा। सात वर्ष बाद आपको बदलना होगा। निर्णय तेज लेने के साथ एक राजनीतिक चतुराई दिखानी होगी जिसमें सभी को साथ लेकर चलने की स्थिति दिखनी चाहिए। सत्ता को ऐन-केन प्रकारेन हासिल करने का उनका सपना पश्चिम बंगाल की चुनाव में टूट चुका है और इसके पहले भी जहां हमारे क्षेत्रप मजबूत हैं वहां मोदी को शिकस्त ही मिली है। केजरीवाल, जगनरेडडी, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक,स्टालिन से लेकर कांग्रेस के वधेल, अमरेन्दर सिंह और अशोक गहलौत ने भी क्योंकि मोदी समर्थन नहीं मानते की कांगे्रस में दम है तब उनके कुछ क्षेत्रिय नेताओं के दम को तो स्वीकारना ही होगा। ऐसा नहीं है कि मोदी की लोकप्रियता बनी ही रहेगी लेकिन जिन उम्मीदों को लेकर वे पीएम बने उसे पूरा करने का प्रयास ही उनके जीवन राजनीतिक सार्थकता की बेहतरीन पारी होगी। वैसे भारतीय राजनीति में मोदी से अधिक चर्चा और लोकप्रियता की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए।

Published / 2021-05-21 15:36:37
कुंभ : विरोेधियों के लिए एक आसान निशाना

एबीएन डेस्क। सख्त दिशा-निर्देशों और नियमों को लागू कराने के सरकार और संतों के प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि मेले में सामान्य उपस्थिति का अंश ही पहुंचा। सख्त दिशा-निदेर्शों और नियमों को लागू कराने के सरकार और संतों के प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि मेले में सामान्य उपस्थिति का अंश ही पहुंचा। मेला अवधि के दौरान साइंटिफिक या डेटा आधारित दृष्टिकोण से अगर हम कोविड मामलों का आकलन करें तो यह साफ पता चलता है कि कुंभ ने दूसरी लहर को बढ़ाने में कोई भूमिका नहीं निभाई है। कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर काफी दुखद रही। पूरा राष्ट्र इस घातक वायरस के खिलाफ एक वीरतापूर्ण लड़ाई लड़ रहा है। यह भी सच है कि बड़ी संख्या में परिवारों को निजी नुकसान और भावनात्मक संकट का सामना करना पड़ा है। अब दुखों के कारणों का पता लगाना स्वभाविक है। ऐसे में हाल ही में हरिद्वार में संपन्न हुआ महाकुंभ मेला पूरे आरोप लगाने के लिए एक आसान लक्ष्य बन गया है, लेकिन क्या ऐसा करना सही है? आइए कुछ तथ्यों को जान लेते हैं। महा कुंभ मेला करोड़ों भक्तों के लिए हजारों साल पुराना एक धार्मिक और सांस्कृतिक समारोह है। यूं तो आमतौर पर मेला 12 साल के अंतराल में आयोजित होता है। फिर भी तिथि और समय पर अंतिम निर्णय ज्योतिष विज्ञान के आधार पर संत लेते हैं। इसी तरह यह तय किया गया कि हरिद्वार का महाकुंभ मेला 2021 में आयोजित होगा। लाखों लोगों की भक्ति का आह्वान करने वाले धार्मिक और सांस्कृतिक समारोहों का समाज में एक विशेष स्थान है। उदाहरण के तौर पर, जर्मनी में चांसलर एंजेला मार्केल ने ईस्टर के समारोह के लिए अपने लॉकडाउन के फैसले को वापस लिया था। वहीं, भारत में संतों ने अलग दृष्टिकोण रखा। पारंपरिक रूप से हरिद्वार कुंभ की अवधि चार महीने की होती है, जो जनवरी से अप्रैल तक चलती है। ऐसा ही पिछले महा कुंभ में भी रहा है। हालांकि, इस साल महामारी को देखते हुए खुद संतों ने अवधि को कम कर एक महीना करने का निर्णय लिया। इसके बाद मेला 1 से 30 अप्रैल तक चला। यह ऐसे समय में किया गया, जब पहली लहर लगभग कम हो चुकी थी। कुल मामले 10 हजार की रेंज में थे और जानकार अनुमान लगा रहे थे कि दूसरी लहर नहीं आएगी। इसके अलावा, जब अप्रैल में स्थिति इतनी जरूरी हो गई, तो माननीय प्रधानमंत्री की अपील पर मेले की अवधि को और कम कर दिया गया। मेले की अवधि के दौरान सरकार ने वायरस के प्रसार को रोकने और निगरानी के लिए कड़े नियम तय किए थे। सभी तीर्थयात्रियों का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया था। पिछले 72 घंटों में लिया गया एक नेगेटिव आरटी-पीसीआर टेस्ट भी प्रवेश के लिए अनिवार्य कर दिया गया था। 150 से ज्यादा स्थायी और मोबाइल सैनिटाइजेशन पॉइंट स्थापित किए गए। कुंभ में लगे सभी फ्रंटलाइन कर्मियों को टीका लगाया गया था और इसमें 2.18 लाख डोज का इस्तेमाल हुआ था। भीड़ ना हो, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कड़े यात्रा दिशानिर्देश जारी किए गए। मेला वाले क्षेत्र में अलग-अलग स्थानों पर रेंडम टेस्ट किए गए। इस दौरान करीब 10 लाख जांचें की गईं और पॉजिटिविटी रेशो केवल 1.49 फीसदी के आसपास था। सख्त दिशानिदेर्शों और नियमों को लागू कराने के सरकार और संतों के प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि मेले में सामान्य उपस्थिति का अंश ही पहुंचा। एक उदाहरण के तौर पर इस साल 14 अप्रैल को महा संक्रांति पर हुए शाही स्नान में केवल 13.5 लाख श्रद्धालुओं ने पवित्र डुबकी लगाई। जबकि, 2010 में हुए शाही स्नान में यह संख्या 1.8 करोड़ थी। यह आंकड़ा 13 गुना से भी ज्यादा है। 2010 में हरिद्वार में हुए पिछले महाकुंभ में कुल उपस्थिति 4 करोड़ से ज्यादा की थी। 2019 में प्रयाग में हुए अर्ध कुंभ में 24 करोड़ श्रद्धालु पहुंचे थे। इसके विपरीत 2021 के हरिद्वार कुंभ में केवल 35 लाख लोग शामिल हुए। यह हिंदू समाज के इस पवित्र, समय प्राचीन अनुष्ठान को चुनौती के दौर में सीमित करने की प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है। मेला अवधि के दौरान साइंटिफिक या डेटा आधारित दृष्टिकोण से अगर हम कोविड मामलों का आकलन करें, तो यह साफ पता चलता है कि कुंभ ने दूसरी लहर को बढ़ाने में कोई भूमिका नहीं निभाई है। नीचे दिए गए नक्शे में उन जिलों का पता चलता है, जहां बीते 4 महीनों में रोज 100 से ज्यादा मामले सामने आ रहे थे। फरवरी और मार्च के नक्शे यह साफ तौर पर दिखाते हैं कि कैसे दूसरी लहर पश्चिमी भारत से उठी, जिसने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। कुंभ मेला अवधि के दौरान ही विशेष रूप से उडश्कऊ सकारात्मकता का विश्लेषण करते हैं। भारत के सभी क्षेत्रों के टियर-2 शहरों के साथ समान जिलों की हरिद्वार और देहरादून से तुलना की जाए, तो इससे यह पता चलता है कि कैसे दूसरी लहर कुंभ की शुरूआत से पहले ही देश के दूसरे हिस्सों में तबाही मचा रही थी। ठीक इसी समय दूरी पर मौजूद दक्षिण के जिलों में भी हरिद्वार और देहरादून की तरह ही पॉजिटिविटी ट्रेंड देखने को मिला। संत के तौर पर आमतौर पर हम नीति और वर्तमान की बातों पर सार्वजनिक तौर पर लिखने से बचते हैं, लेकिन बीते हफ्ते में हुई बातों ने मुझे यह लिखने के लिए मजबूर किया है। जिस तरह से कुंभ मेले को बदनाम किया गया है, उससे न सिर्फ मुझे बल्कि करोड़ों आम हिंदुओं को गहरा दुख पहुंचा है। हमारी सबसे प्रतिष्ठित परंपराएं राजनीतिक रस्साकशी का हिस्सा बन गई हैं, और वह भी कुछ पूर्व नियोजित टूल-किट के हिस्से के रूप में संतों और करोड़ों आम हिंदुओं ने ऐसा कौन सा अपराध किया है कि उन्हें अपने ही देश में इतना शमिंर्दा और अपमानित होना पड़ा है? भगवद् गीता प्रभु श्रीकृष्ण ने कहा है- तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान।?? क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।। हम सामान्य नश्वर लोगों के रूप में ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि वह उन लोगों को क्षमा करें जो इस क्रूर कृत्य में शामिल थे। उनके पास आत्मनिरीक्षण करने और अपने आचरण पर चिंतन करने की बुद्धि भी हो।

Published / 2021-05-20 13:33:34
धर्म और जाति की राजनीति का परिणाम तैरते लाश

एबीएन डेस्क। कोविड-19 संक्रमण से जूझ रहे उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा और यमुना में बहते शव और इन नदियों के तटों पर दफनाए गए मृतकों की तस्वीरें आने वाले कई वर्षों तक इस महामारी की याद दिलाती रहेंगी। हमारे लिए यह कुछ और बातों का संकेतक भी है। यह केवल महामारी की लहर नहीं है जो आती है और लाखों लोगों की जान लेकर चली जाती है। बल्कि यह खराब शासन, कमतर विकास, खराब राजनीति और भयावह क्षेत्रीय असंतुलन की निरंतर त्रासदी के रूप में घटित हुई है। ये बड़ी नदियां केवल उत्तर प्रदेश और बिहार से नहीं बहती हैं। गंगा और यमुना के अलावा ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, नर्मदा और तमाम अन्य नदियां बहती हैं। ये नदियां कई राज्यों और देश के तमाम बड़े शहरों से गुजरती हैं। वहां कोविड पीड़ितों के शव बहते हुए क्यों नहीं दिखते? यह नदियों की गलती नहीं है। देश की सभी बड़ी नदियों को देवी और मां की तरह पूजा जाता है। मोटे तौर पर इन सभी इलाकों और राज्यों में धार्मिक जनांकीय स्थिति एक जैसी है। यदि धार्मिक नहीं तो क्या इसकी वजह क्षेत्र है? शायद नहीं। यमुना उत्तर प्रदेश में आने से पहले हरियाणा में सिंचाई की सुविधा देती है। पंजाब में सतलज, व्यास और रावी नदी में भी ऐसी तस्वीर नहीं दिखी। ध्यान रहे कि पंजाब में कोविड संक्रमण से मरने वाले लोगों का अनुपात सबसे अधिक है। लेकिन इन नदियों में कोई शव नहीं मिला। क्या इसका संबंध भाषा अथवा संस्कृति से है? या फिर सबसे कमजोर मानी जाने वाली जनता से जिसे सत्ताधारी वर्ग जरूरत के अनुसार बलि का बकरा बना देता है। आप लोगों को कभी दोष नहीं दे सकते, बशर्ते कि आप हास्य अभिनेता साशा बैरन कोहेन द्वारा निभाए गए किरदार बोराट की तरह न हों। तो किसे दोष दिया जाए? केवल कुछ ही राज्योंं में रहने वाले लोग इतने गरीब और नाउम्मीद क्यों हैं कि वे अपने प्रिय जनों के शव नदियों में बहा रहे हैं, कि वे उनकी चिता के लिए लकडिय़ां, दफनाने की जगह या पंडित की दक्षिणा तक नहीं जुटा पा रहे हैं? 21वीं सदी में देश के कुछ हिस्सों में इंसानी मौत को जरूरी सम्मान क्यों नहीं मिल पा रहा? तमाम संभावनाओं को खारिज करने के बाद राजनीति और अर्थनीति बच जाते हैं। हमने यह क्रम जानबूझकर रखा है क्योंकि सभी आर्थिक निष्कर्ष अच्छी या बुरी राजनीति से उपजते हैं। यहां बात आती है हमारे प्रिय विषय यानी चुनावी राजनीति की। केवल उत्तर प्रदेश और बिहार के बजाय हिंदी प्रदेश के चारों राज्यों को शामिल करते हैं और राजस्थान तथा मध्य प्रदेश को इसमें शामिल करते हैं। विश्लेषण की सुविधा के लिए हम इन राज्यों को उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड के अलग होने से पहले वाले स्वरूप में याद करेंगे। आर्थिक रूप से इनमें काफी समानता है। इन सभी की प्रति व्यक्ति आय 1,500 डॉलर से कम है। यह राशि 2,200 डॉलर के राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। हिंदू धर्म के सर्वाधिक पवित्र और प्राचीन धार्मिक स्थल इसी क्षेत्र में हैं। भले ही आज यह हिंदुत्व की राजनीतिक का गढ़ हो लेकिन सन 1989 तक यह कांग्रेस का अभेद्य किला था। परंतु 2014 के बाद तो भाजपा ने इसे पूरी तरह कब्जे में ले लिया है। हर भारतीय प्रधानमंत्री जो अपने दल का प्रमुख नेता था वह उत्तर प्रदेश से था: नेहरू, इंदिरा, राजीव, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, वाजपेयी और अब नरेंद्र मोदी भी। वह भी बडोदरा से बनारस आए। हम मोरारजी देसाई, नरसिंह राव और मनमोहन सिंह को स्वाभाविक तौर पर इसमें शामिल नहीं कर रहे हैं। देश पर शासन करने वाले का निर्णय हिंद प्रदेश ही करता है। इसके बावजूद यहां अत्यंत खराब शासन है। सामाजिक संकेतकों पर यह इतना पीछे है कि सारे देश को पीछे खींच लेता है। इनमें साक्षरता से लेकर शिशु मृत्यु दर, स्कूल छोड?े वाले बच्चे, जीवन संभाव्यता, प्रति व्यक्ति आय और जन्म दर तक सब शामिल हैं। हमने 2018 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि कैसे पाकिस्तान के समतुल्य आबादी वाला उत्तर प्रदेश सामाजिक संकेतकों में भी वैसा ही पिछड़ा है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में यह पाकिस्तान से भी नीचे था। इन चारों में से कोई राज्य प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश के शीर्ष 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में नहीं आता। राजस्थान 22वें, मध्य प्रदेश 27वें, उत्तर प्रदेश 32वें और बिहार 33वें स्थान पर है। परंतु आबादी में वृद्घि के मामले में ये राज्य 2011 की जनगणना में भी शीर्ष पर हैं। बिहार ने 2001-11 की अवधि में 25 फीसदी वृद्घि हासिल की। इस अवधि में राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश 21-20 फीसदी दायरे में रहे। इस अवधि में केरल की जनसंख्या 5 फीसदी से भी कम दर से बढ़ी। विंध्य के दक्षिण में तस्वीर बदल जाती है। प्रति व्यक्ति आय में गोवा, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, पुदुच्चेरी, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात क्रमश: एक और 6-12 के बीच आते हैं। महाराष्टद्द्र 15वें और आंध्र प्रदेश 17वें स्थान पर है। इसके बावजूद ये राज्य कभी यह तय नहीं कर पाए कि देश पर किसका शासन होगा। राजनीति की बात करें तो चार बीमारू राज्यों में लोकसभा की 543 में से 204 सीट आती हैं। अगर कोई पार्टी इनमें से अधिकांश जीत ले तो उसका दिल्ली की गद्दी पर बैठना तय है। कांग्रेस ने 1984 तक ज्यादातर ऐसा ही किया और मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने भी। विंध्य के दक्षिण में सभी राज्यों की मिलाकर 185 सीट हैं। अगर ओडिशा को शामिल कर लें तो 205 सीट हो जाती हैं। क्या कोई ये सारी सीटें जीतकर देश पर शासन करने की सोच सकता है? वर्तमान में यह असंभव है। जिन राज्यों की राजनीति और राजनीतिक प्राथमिकताएं साझा हैं, वे देश पर शासन भले करें लेकिन जीवन गुणवत्ता के मानकों पर पीछे हैं। कांग्रेस के शासनकाल में भी ऐसा ही था और भाजपा के काल में भी है। आप हमें धर्म, जाति और राष्ट्रवाद के नाम पर सत्ता दीजिए और हम आपको ऐसा कष्ट देंगे कि आपको अपनी आजीविका कमाने हजारों मील दूर जाना होगा, 12 महीनों में दो बार महामारी के चलते अपने घर का रुख करना होगा, आपके पास मां-बाप, भाई-बहिन या बच्चों के अंतिम संस्कार के लिए लिए पैसे नहीं होंगे और आपको उनके शव नदियों में फेंकने होंगे।

Published / 2021-05-18 14:45:13
पिछले साल की तरह कृषि क्षेत्र ही देश को बचायेगा

एबीएन डेस्क। चारों तिमाहियों में कृषि क्षेत्र एवं मछली पालन इत्यादि क्षेत्रों में विकास दर सकारात्मक रही है। यह प्रथम तिमाही में 3.3 प्रतिशत, द्वितीय तिमाही में 3.0 प्रतिशत, तृतीय तिमाही में 3.9 प्रतिशत एवं चतुर्थ तिमाही में 1.9 प्रतिशत रही थी। भारत में मौसम सम्बंधी विभिन्न संस्थानों द्वारा वर्ष 2021 में मानसून के सामान्य से कुछ अधिक बने रहने की उम्मीद जताई गई है। देश के ज्यादातर भागों में सामान्य से अधिक बारिश होने की सम्भावना व्यक्त की गई है। देश में कृषि क्षेत्र के लिए यह एक शुभ संकेत है। बाकी क्षेत्रों (सेवा एवं उद्योग) पर कोविड महामारी का लगातार विपरीत असर पड़ रहा है। पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी कृषि क्षेत्र ही देश के आर्थिक विकास को गति देने में अपनी अग्रणी भूमिका निभाता नजर आ रहा है। पिछले वर्ष भी केवल कृषि क्षेत्र में ही वृद्धि दर्ज की गई थी। वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान चारों तिमाहियों में कृषि क्षेत्र एवं मछली पालन इत्यादि क्षेत्रों में विकास दर सकारात्मक रही है। यह प्रथम तिमाही में 3.3 प्रतिशत, द्वितीय तिमाही में 3.0 प्रतिशत, तृतीय तिमाही में 3.9 प्रतिशत एवं चतुर्थ तिमाही में 1.9 प्रतिशत रही थी। सकल मूल्य योग (ग्रोस वैल्यू एडिशन- विकास का आकलन करने के लिए सकल घरेलू उत्पाद की तरह का एक पैमाना) में कृषि क्षेत्र का योगदान वर्ष 2015-16 में 17.7 प्रतिशत, 2016-17 में 18 प्रतिशत, 2018-19 में 18 प्रतिशत, 2018-19 में 17.1 प्रतिशत एवं 2019-20 में 17.8 प्रतिशत रहा है, वह 2020-21 में बढ़कर 18 प्रतिशत से कहीं अधिक रहने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। अनाज के उत्पादन में भी लगातार वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है। अनाज का उत्पादन वर्ष 2017-18 में 28.5 करोड़ टन एवं 2018-19 में 28.52 करोड़ टन था जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 29.66 करोड़ टन हो गया। गेहूं और चावल के उत्पादन में भी लगातार बढ़त देखने को मिली है। गेहूं का उत्पादन वर्ष 2017-18 में 9.99 करोड़ टन, 2018-19 में 10.36 करोड़ टन एवं 2019-20 में बढ़कर 10.76 करोड़ टन का हो गया है। वहीं चावल का उत्पादन भी वर्ष 2017-18 में 11.28 करोड़ टन, 2018-19 में 11.65 करोड़ टन एवं 2019-20 में बढ़कर 11.84 करोड़ टन का हो गया है। मौसम सम्बंधी संस्थानों के अनुमानों के अनुसार इस वर्ष केवल जम्मू एवं कश्मीर, उत्तर-पूर्व का कुछ भाग, हरियाणा, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे कुछ इलाकों में सामान्य से कुछ कम बारिश हो सकती है। मानसून सम्बंधी इन मिले जुले पूवार्नुमानों का देश की अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से कृषि क्षेत्र पर कोई बुरा प्रभाव पड़ने की सम्भावना नहीं के बराबर ही है, क्योंकि उक्त वर्णित क्षेत्रों जहां मानसून की तुलनात्मक रूप से कम वर्षा होने का अनुमान लगाया गया है। इन क्षेत्रों में खरीफ मौसम की मुख्य फसल धान की पैदावार कम ही होती है। हां, इन इलाकों में मानसून के कमजोर रहने के कारण कृषि क्षेत्र की गतिविधियों में कमी आने से मजदूरों के लिए बेरोजगारी में वृद्धि देखने में आ सकती है। परंतु, मनरेगा योजना के अंतर्गत रोजगार के अधिक अवसर निर्मित कर इन क्षेत्रों में बेरोजगारी सम्बंधी परेशानी को कम किया जा सकता है। खरीफ मौसम में फसल की पैदावार में, धान की पैदावार में, वृद्धि देखने को मिलेगी। लगभग 15.4 करोड़ टन की पैदावार खरीफ मौसम की फसल से हो सकती है जो वर्ष भर में होने वाले अनुमानित 30.3 करोड़ टन पैदावार का 50 प्रतिशत से कुछ अधिक ही है। जून माह में खरीफ का मौसम शुरू होता है। इसके साथ ही यदि पानी का अच्छा संग्रहण करने में सफलता हासिल कर ली जाती है तो रबी मौसम की फसल के स्तर में भी अच्छी वृद्धि होने की सम्भावनाएं बढ़ जाएंगीं। केंद्र सरकार द्वारा ग्रामीण इलाकों में स्वच्छ जल पहुंचाने एवं पानी के संग्रहण के लिए जल शक्ति अभियान की शुरूआत दिनांक 1 जुलाई 2019 से की जा चुकी है। यह अभियान देश में स्वच्छ भारत अभियान की तर्ज पर जन भागीदारी के साथ चलाया जा रहा है। देश में प्रति वर्ष पानी के कुल उपयोग का 89 प्रतिशत हिस्सा कृषि की सिंचाई के लिए खर्च होता है, 9 प्रतिशत हिस्सा घरेलू कामों में खर्च होता है तथा शेष 2 प्रतिशत हिस्सा उद्योगों द्वारा खर्च किया जाता है। इस लिहाज से देश के ग्रामीण इलाकों में पानी के संचय की आज आवश्यकता अधिक है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में हमारी माताएं एवं बहनें तो कई इलाकों में 2-3 किलोमीटर पैदल चल कर केवल एक घड़ा भर पानी लाती देखी जाती हैं। अत: खेत में उपयोग होने हेतु पानी का संचय खेत में ही किया जाना चाहिए एवं गांव में उपयोग होने हेतु पानी का संचय गांव में ही किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा एवं स्थानीय स्तर पर आवश्यकता अनुरूप कई कार्यक्रमों को लागू कर इन जिलों के भूजल स्तर में वृद्धि करने हेतु विशेष प्रयास किए जा रहे हैं। पानी के संचय हेतु विभिन्न संरचनाएं यथा तालाब, चेकडेम, रोबियन स्ट्रक्चर, स्टॉप डेम, पेरकोलेशन टैंक जमीन के ऊपर या नीचे बड़ी मात्रा में, जल शक्ति अभियान के अंतर्गत भी बनाए जा रहे हैं। इसी कारण से यह उम्मीद की जा रही है कि इस वर्ष रबी की फसल भी अच्छी मात्रा में हो सकती है। देश में बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए केंद्र सरकार लगातार काम कर रही है। जिसके चलते आज यातायात की मजबूत चेन देश में उपलब्ध हो गई है। कोरोना महामारी के पहिले दौर के दौरान सप्लाई चैन मजबूत बनी रही थी, ऐसी स्थिति में खाद्य पदार्थों की कीमतों के बढ़ने की कम सम्भावना रहेगी। केंद्र एवं राज्य सरकारों के संयुक्त प्रयासों से देश में आजकल कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण भी तेजी से बढ़ रहा है। अत: श्रम पर निर्भरता लगातार कम हो रही है। ट्रैक्टर, हार्वेस्टर जैसे संयत्रों का उपयोग तो अब छोटे एवं मंझोले किसान भी करने लगे हैं। इस तरह के संयंत्र आज गांवों में उपलब्ध हैं, गांवों में मशीन बैंक बनाए गए हैं। छोटे एवं मंझोले किसान इन संयंत्रों को किराए पर लेकर कृषि कार्यों के लिए इन संयंत्रों का उपयोग अब आसानी से करने लगे है। जिसके चलते कृषि क्षेत्र में उत्पादकता में भी वृद्धि देखने में आ रही है।

Published / 2021-04-29 14:14:27
कोरोना की विकरालता से डंटकर निपटना होगा

एबीएन डेस्क। देश में चल रही कोरोना की दूसरी लहर हर दिन विकराल होती जा रही है। पूरा देश इसकी चपेट में आ चुका है। नये कोरोना संक्रमण मरीज आने की संख्या के लिहाज से भारत दुनिया में पहले स्थान पर पहुंच गया है जो बहुत बड़ी चिंता की बात है। यदि कोरोना संक्रमित मरीजों का मिलने का सिलसिला इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो आने वाले कुछ दिनों में ही भारत में प्रतिदिन चार लाख से अधिक कोरोना मरीज मिलने लगेंगे। कोरोना के बढ़ते प्रभाव को काबू में करने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने लगे हैं। मगर सरकारी प्रयासों के बावजूद भी कोरोना संक्रमितो के आने की संख्या में कमी नहीं हो पा रही है। कोरोना विशेषज्ञों व वैज्ञानिकों का मानना है कि मई मध्य तक कोरोना का कहर पीक पर होगा। उसके बाद इसकी संख्या में कमी आनी शुरू होगी। लेकिन अभी अप्रैल में ही जब प्रतिदिन इतनी बड़ी संख्या में कोरोना पॉजिटिव लोग मिल रहे हैं तो मई में तो इनकी संख्या में बहुत अधिक बढ़ोतरी हो जाएगी। ऐसी स्थिति का मुकाबला करने के लिए सरकार को अभी से युद्ध स्तर पर काम करना चाहिये। कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ ही देश में आॅक्सीजन की भयंकर कमी महसूस की जा रही है। आॅक्सीजन की कमी के चलते कई स्थानों पर कोरोना संक्रमित लोगों की मौत भी हो चुकी है। जो सभ्य समाज के लिए शर्मनाक है। हालांकि आॅक्सीजन संकट व्याप्त होते ही केंद्र सरकार ने शीघ्रता से आपदा नियंत्रण की दिशा में सार्थक कार्यवाही करते हुये पूरे देश में आॅक्सीजन उत्पादन संयंत्रों का केंद्रीकरण कर उसका राज्यवार आवंटन का कोटा तय किया ताकि देश के सभी राज्यों को समान रूप से आवश्यकतानुसार आॅक्सीजन गैस मिल सके। इसके साथ ही सरकार ने वायु सेना के विमानों के माध्यम से विदेशों से आॅक्सीजन के कंटेनर व आॅक्सीजन उत्पादन से संबंधित मशीनों का भी तेजी से आयात करना प्रारंभ कर दिया है। इसके साथ ही देश में आॅक्सीजन के टैंकरों को निर्धारित स्थान तक पहुंचाने के लिए वायु सेना के परिवहन विमानों व रेलवे की माल गाड़ियों का उपयोग किया जाने लगा। जिससे एक स्थान से दूसरे स्थान तक आॅक्सीजन तेजी से पहुंचने लगी। हालांकि आज भी देश में आवश्यकता अनुसार आॅक्सीजन उपलब्ध नहीं है। मगर केंद्र सरकार ने देश की जनता को आश्वस्त किया है कि जरूरत पड़ने पर विदेशों से भी आॅक्सीजन का आयात किया जाएगा और ऐसा किया भी जा रहा है। सरकार ने आॅक्सीजन के निर्यात पर पूर्णतया रोक लगा दी है। इसके साथ ही औद्योगिक इकाइयों में इस्तेमाल होने वाली आॅक्सीजन पर रोक लगाते हुए उसे अस्पतालों में भर्ती मरीजों के उपयोग में लाया जा रहा है। हाल ही में देश में उपजे आॅक्सीजन विवाद के चलते कई प्रदेशों में उच्च न्यायालय को दखल देना पड़ा। उच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान सामने आया कि केंद्र सरकार द्वारा पिछले जनवरी माह में विभिन्न राज्यों के सरकारी अस्पतालों में आॅक्सीजन बनाने के प्लांट लगाने हेतु धनराशि जारी होने के उपरांत भी राज्य सरकारों द्वारा अभी तक आॅक्सीजन संयंत्र लगाने की दिशा में कोई कार्यवाही नहीं की गई। जबकि यदि समय रहते अस्पतालों में आॅक्सीजन प्लांट लगा लिए जाते तो आज देश को विकट स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। कोरोना संक्रमण के बाद हालात ऐसे बन गए कि विकास कार्यों की बजाए सरकार को लोगों की जान बचाने की तरफ अधिक ध्यान देना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं किया गया। आज भी केंद्र व राज्य सरकारें अस्पताल बनाने के स्थान पर नई सड़कें बनाने, नए पावर हाउस बनाने, नई बिजली की लाइनें डालने, नए भवन बनाने व सरकार से जुड़े लोगों को अधिकाधिक सुख सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर अधिक ध्यान दे रही हैं। सरकारों का अधिकांश बजट भी इन्हीं सब कार्यों पर खर्च किया जा रहा है। जबकि कोरोना की पहली लहर के समय ही केंद्र व राज्य सरकारों को सचेत होकर भविष्य में लोगों को बेहतर चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए था। कहने को तो केंद्र सरकार व राज्य सरकारों ने अपने बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च करने के लिए पहले से अधिक राशि का आवंटन किया है। मगर सरकारों को चाहिए था कि अधिक की बजाय सबसे अधिक राशि इस साल के बजट में चिकित्सा के क्षेत्र पर खर्च की जानी चाहिए थी। ताकि हमारी चिकित्सा व्यवस्था इतनी मजबूत हो सके कि हम आने वाली किसी भी बीमारी का अपने संसाधनों के बल पर सुदृढ़ता से मुकाबला कर सकें। देश में कोरोना की वैक्सीन लगाने का कार्य तेजी से चल रहा है। लेकिन उसमें भी केंद्र व राज्य सरकारों में टकराव देखने को मिल रहा है। राज्यों की मांग पर केंद्र सरकार ने 18 वर्ष से अधिक की उम्र के सभी लोगों को टीका लगवाने की इजाजत दे दी है। मगर उसके साथ ही केंद्र सरकार ने वैक्सीन उत्पादन करने वाली कंपनियों से आधा वैक्सीन केंद्र सरकार को व आधा वैक्सीन राज्य सरकारों व खुले बाजार में बेचने की छूट प्रदान कर दी है। उसमें कई राज्य सरकारें वैक्सीन का खर्च उठाने में असमर्थता जता रही हैं जिसको लेकर भी आए दिन आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं। इसके साथ ही सरकार को ऐसा नियम बनाना चाहिए कि सभी बड़े निजी अस्पतालों में भी आॅक्सीजन बनाने का संयंत्र लगाना आवश्यक हो ताकि आॅक्सीजन को लेकर जैसा संकट इस वक्त देश की जनता झेल रही है, वैसी स्थिति फिर कभी नहीं देखनी पड़े। देश में एम्स जैसे बड़े चिकित्सा संस्थान, मेडिकल कॉलेज और अधिक संख्या में स्थापित किए जाने चाहिए ताकि लोगों को अपने क्षेत्र में ही उच्च स्तरीय चिकित्सा सुविधा सुलभता से मिल सके।

Published / 2021-04-28 12:45:53
कोरोना वायरस के समय में समुचित नीति

एबीएन डेस्क। कोविड-19 महामारी के कारण अब तक दुनिया में 30 लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इसने दुनिया की अर्थव्यवस्था को भी लगभग तबाह ही कर दिया है। यह सही है कि अब दुनिया भर में टीकाकरण शुरू हो चुका है लेकिन संकट है कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा है। निश्चित तौर पर कोरोनावायरस के बदले हुए स्वरूप की यह लहर और कहीं अधिक खतरनाक हो सकती है। अलग-अलग देशों ने इस चुनौती से निपटने के लिए अलग-अलग रणनीति अपनाई है। ऐसे में यह देखना उचित होगा कि वे कौन से देश हैं जो महामारी से बेहतर तरीके से निपटने मेंं कामयाब रहे, कहां मौत के आंकड़े कम रखने में सफलता मिली, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई गईं और आर्थिक नुकसान कम करने में कामयाबी हाथ लगी? विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से इसे महामारी करार देने के एक वर्ष बाद हम इसका उदाहरण हैं। यह केवल अकादमिक बहस नहीं है: नीति निमार्ताओं को मौजूदा हालात से निपटना होगा और उन्हें सन 2020 की सफलताओं और विफलताओं से सबक लेने की आवश्यकता है। अपेक्षाकृत कम मौतों और बेहतर आर्थिक स्थिरता के साथ जर्मनी, न्यूजीलैंड, जापान, वियतनाम, ताइवान और दक्षिण कोरिया सन 2020 से अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से निपटने में कामयाब रहे। जबकि अमेरिका, ब्राजील, इटली, ब्रिटेन और रूस में मौत के आंकड़े भी अधिक रहे और आर्थिक संकट भी अन्य देशों की तुलना में अधिक रहा। मौत के मामलों में भारत का प्रदर्शन बहुत खराब नहीं कहा जा सकता है। परंतु आर्थिक नुकसान के मामले में हम सबसे खराब प्रदर्शन वाले देशोंं में शुमार हैं। चीन में मौत तथा संक्रमितों के आंकड़ों के बारे में जान पाना कठिन है लेकिन वह अपने यहां आर्थिक गतिविधियों को ठीक रख पाने मेंकामयाब रहा है। पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के व्हार्टन स्कूल के समाजशास्त्री माउरो गुइलेन ने एक पर्चा लिखा है, द पॉलिटिक्स आॅफ पैनडेमिक्स: डेमोक्रेसी, स्टेट कैपिसिटी ऐंड इकनॉमिक इनेक्विलिटी। इसमें 146 देशों में सन 1990 के बाद से संक्रामक रोगों और उनके प्रबंधन पर नजर डाली गई है। उन्होंने इन विषयों पर तीन अध्ययन किए। पहले में सन 1990 और 2019 के बीच संक्रामक रोगों की आवृत्ति और इनके घातक होने का अध्ययन किया गया है। दूसरे में कोविड-19 के दौरान सरकारों की ओर से लगाए गए लॉकडाउन की गति और उसकी गंभीरता का अध्ययन है। तीसरा अध्ययन शारीरिक दूरी के मानकों के अनुपालन पर आधारित है। गुइलेन कहते हैं, लोकतांत्रिक देशों में, गहरी पारदर्शिता, जवाबदेही और जनता के विश्वास ने ऐसे रोगों की आवृत्ति और उनके घातक असर को सीमित किया है, इन्हें लेकर दी जाने वाली प्रतिक्रिया मेंं समय कम लगा है और सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े उपायों को लेकर लोगों में अनुपालन की प्रवृत्ति बढ़ी है। खेद की बात यह है कि सालाना वैश्विक लोकतांत्रिक सूचकांक यह संकेत दे रहा है कि लोकतंत्र के स्तर मेंं गिरावट आ रही है। इससे अविश्वास का माहौल उत्पन्न हुआ है। इसका अर्थ यह है कि लोग शारीरिक दूरी का पालन करने, मास्क पहनने और टीका लगवाने से इनकार कर रहे हैं। एक अधिक दिलचस्प नतीजा यह है कि सरकार के स्वरूपों से ज्यादा आर्थिक असमानता ने ऐसी बीमारियों के प्रभाव को बढ़ाया है और क्वारंटीन, शारीरिक दूरी आदि के व्यापक अनुपालन पर भी असर डाला है। कम आय वाले लोगों के लिए काम करना मजबूरी है। उन्हें मामूली लक्षणों की अनदेखी करना और जांच से बचना आसान लगता है क्योंकि वे काम नहीं छोड़ सकते। इतना ही नहीं कम आय का संबंध कमजोर पोषण, स्वास्थ्य सेवाओं तक अपर्याप्त पहुंच और भीड़भाड़ वाले इलाकों में बिना साफ सफाई के रहने से भी है। मजबूत सरकारी क्षमता और अच्छी नीति हमें खराब नतीजों से बचा सकती है और आय की असमानता में इजाफा भी रोक सकती है। गुइलेन का मानना है कि लोकतांत्रिक और अधिनायकवादी दोनों तरह के शासन जरूरी संसाधन और क्षमता के साथ-साथ आवश्यक संगठनात्मक ढांचा तैयार कर सकते हैं। कुछ भी हो, लोकतांत्रिक व्यवस्था हो अथवा नहीं लेकिन अगर असमानता अधिक हो तो परिणाम भी बुरे होते हैं। यह दलील मजबूत नजर आती है। अमेरिका, भारत और ब्राजील तीनों में असमानता का स्तर बहुत अधिक है। भारत के मामले में दुखद बात यह है कि लॉकडाउन के कारण आय का अंतर काफी बढ़ गया क्योंकि लाखों लोगों को रोजगार गंवाना पड़ा। अमेरिका इस मामले में खुशकिस्मत है क्योंकि वहां सत्ता परिवर्तन हो गया। इससे वहां अधिक बेहतर नीति लागू हुई। अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडन के नेतृत्व वाले नए सत्ता प्रतिष्ठान ने एक प्रभावशाली टीकाकरण कार्यक्रम की शुरूआत की और प्रोत्साहन के चेकों के माध्यम से राहत में इजाफा किया। भारत में इस बात के प्रमाण हैं कि केंद्र सरकार ने टीकाकरण की प्रक्रिया को भी सहज तरीके से नहीं शुरू किया। अब राज्यों में टीकों की कमी हो गई है और केंद्र, राज्यों पर दोषारोपण कर रहा है। विभिन्न चरणों में चुनाव के आयोजन और असमय कुंभ मेले के लिए भी राजनीतिक कारण ही जिम्मेदार हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इनके कारण संक्रमण में बेतहाशा वृद्धि होना तय है। आर्थिक मोर्चे पर मांग में जो भी सुधार हुआ है वह ईंधन पर भारी भरकम कर और सख्त वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था के बावजूद हुआ है। सन 2020 में लगाए गए लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया था और अगर दोबारा लॉकडाउन लगता है कि निम्र आय वर्ग वाले लोग मजबूर हो जाएंगे कि वे या तो भूखों मरें या फिर कानून तोड़ें और संक्रमण का खतरा बढ़ाएं। यह देखा जाना है कि क्या यह सरकार टीकाकरण में सुधार कर एक बेहतर प्रोत्साहन योजना पेश कर पाती है या नहीं।

Published / 2021-04-26 14:55:50
संवैधानिक मूल्यों पर आधारित हो राजनीति

एबीएन डेस्क। भले ही चुनावों को लेकर औपचारिक प्रावधान बरकरार हैं लेकिन भारतीय लोकतंत्र राजनीतिक संस्कृति के एक बड़े संकट का सामना कर रहा है। इस संकट में सत्ताधारी दल और विपक्ष के बीच के संवाद, एक विविधतापूर्ण समाज में बहुसंख्यकवाद की बढ़ती वैधता, मूल अधिकारों और कानून प्रवर्तन के प्रावधानों के प्रभाव को लेकर भरोसा कम होना, केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के अधिकारों के अतिक्रमण के साथ संघवाद का क्षय, विकास संबंधी नीतियों का चुनावी नतीजों को लक्ष्य कर बनाया जाना आदि बातें शामिल हैं। भारतीय संविधान ने देश को धर्मनिरपेक्ष, उदार लोकतांत्रिक मूल्यों वाला बनाया और इसकी वजह थी विभाजन के सांप्रदायिक आधार को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया। संविधान सभा की बहसों को पढ़ने से भी यह बात प्रमाणित होती है। नेहरू युग में इसका बचाव एक ऐसे नेता ने किया जो दिल से धर्मनिरपेक्ष था, संसदीय परंपरा की इज्जत करता था और लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका की भी। सच तो यह है कि सत्ताधारी दल स्वयं विविध हितों वाले लोगों का समूह था और इसलिए विचारधारा आधारित शासन रोकने में मदद मिली। आज जिस दल का सत्ता पर कब्जा है वह विचारधारा आधारित राजनीतिक शक्ति है। ऐसा नहीं है कि संसदीय परंपरा और विपक्ष का यह सम्मान नेहरू युग की खासियत रही। बहुत बाद में पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी यह देखने को मिला। परंतु इन दिनों विपक्ष और सरकार के साथ रिश्तों की जो स्थिति है और कानून तथा नीतियां बनाने के पहले मशविरों के न होने ने भी उस विश्वास को कमजोर किया है जिसके आधार पर एक लोकतांत्रिक सरकार काम करती है। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है एक धर्मनिरपेक्ष और उदार लोकतांत्रिक देश के रूप में हमारे भविष्य में आस्था बहाल करना और विविधता को लेकर व्यापक सहिष्णुता। यह बात संविधान की बुनियाद में अंतर्निहित है जिसके तहत सार्वभौमिक मताधिकार से शासन चलता है। इसका अर्थ है धर्म, जातीय पहचान, भाषा, लिंग और अन्य विविधता वाली बातों की भरपूर इज्जत करना। सन 1940 के दशक में सार्वभौमिक मताधिकार के कारण समाज में समता की भावना पैदा हुई जबकि हमारा समाज ऐसा जहां पदसोपानिक असमानता सामाजिक ढांचे और व्यक्तिगत मनोविज्ञान में गहरे तक धंसी हुई है। इससे संबंधित निर्देश विभिन्न जिलों में पदस्थ सभी अफसरशाहों तक पहुंचाए गए कि ऐसी सार्वभौमिक मतदाता सूची तैयार की जाए। पहले से मौजूद मतदाता सूचियां प्राय: सार्वभौमिक नहीं होती थीं और समुदायों द्वारा तैयार की जाती थीं। अफसरशाहों ने इस आदेश को गंभीरता से लिया। उदाहरण के लिए तत्कालीन बंबई के जिला कलेक्टर ने पूछा कि सड़कों पर रहने वालों को कैसे छोड़ा जा सकता है जबकि उनका तो कोई स्थायी पता भी नहीं होता। मेरा मानना है कि अफसरशाहों ने तय किया कि उनकी सोने की जगह को ही उनका पता माना जाए। यह नियम अब भी जारी है। आज जरूरत इस बात की है कि हमारी अफसरशाही शासन के हर स्तर पर ऐसी ही प्रतिबद्धता दिखाए। सार्वभौमिक मताधिकार जैसा सिद्धांत तब कारगर नहीं है जब समाज के किसी एक समूह की वैचारिकी हावी हो। लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ा खतरा बहुसंख्यकवादी अधिनायकवाद है। इससे बचने के लिए हमें ऐसी राजनीतिक संस्कृति और मीडिया की जरूरत है जो लोगों के बीच विश्वास बढ़ाए। सबसे पहले इस बात को चिह्नित करना होगा कि हम सब समान हैं और एक व्यक्ति का एक मत है। भले ही बहुसंख्यक वर्ग को जीत हासिल हो लेकिन अल्पसंख्यकों को भी अपने मतांतर के बचाव और संरक्षण का पूरा अधिकार है। यह भरोसा एक सक्रिय लोकतंत्र में पैदा होता है। दूसरी बात, इससे आगे यह भी कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति अपना नजरिया पेश करने को स्वतंत्र है। इसका व्यावहारिक उदाहरण है लोकतंत्र में अल्पसंख्यक नजरिये को अभिव्यक्त करना। तीसरा, चरण एक कदम आगे का है जहां कोई व्यक्ति यह कह सकता है कि अगर मैं आपकी जगह रहूं तो ऐसा कहूंगा। ऐसी बातें एक लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यकों के नजरिये को व्यवहार में जगह देती हैं। मिसाल के तौर पर विद्यालयों में माथे पर स्कार्फ लगाने की इजाजत देना। हमें आज ऐसी राजनीतिक संस्कृति की आवश्यकता है जिसमें सच्चाई, सम्मान, सभ्यता और संयम हों। यदि पुलिस कानून के बजाय अपने राजनीतिक आकाओं द्वारा तय नियमों का पालन करेगी तो ऐसा नहीं होगा। बहुसंख्यक वर्ग के निगरानी दस्ते अल्पसंख्यक प्रदर्शनकारियों को जिस प्रकार प्रताड़ित करते हैं और उन्हें जो बचाव प्राप्त है वह स्तब्ध करने वाला है। पुलिस की कार्यप्रणाली को निष्पक्ष बनाने के अलावा हमें गैर सरकारी संस्थानों के अहम तत्त्वों में भी नई ऊर्जा का संचार करना होगा ताकि लोग साथी नागरिकों के साथ नैतिक बंधन महसूस कर सकें। देश में विविधता के सम्मान का एक अर्थ संघवाद का सम्मान करना भी होना चाहिए। संविधान में केंद्र सरकार शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। इसके लिए संघीय सरकार का इस्तेमाल किया गया है जो संविधान में संघवाद पर जोर को उजागर करता है। संभवत: संघवाद का सबसे अहम पहलू जिसमें सुधार की जरूरत है वह है राज्यपालों की नियुक्ति। सरकारिया आयोग ने इसे लेकर कुछ अनुशंसाएं कीं लेकिन उनका पालन नहीं किया गया और हम एक ऐसी व्यवस्था में उलझ गए हैं जहां केंद्र सरकार अपने दल के वफादारों को राज्यपाल बनाकर राज्य सरकारों के कामकाज में बाधा डाल सकती है। परंतु ऐसे भी क्षेत्र हैं जहां सुधार की जरूरत है। मसलन राज्य सूची के विषयों में केंद्र समर्थित योजनाओं का विस्तार। जो लोगों की पसंद के मुताबिक उन्हें घरेलू गैस, बिजली, खाने-पीने की वस्तुएं, स्वास्थ्य सेवा (खासकर मौजूदा कोविड महामारी जैसी आपात स्थितियों में) जैसी सुविधाएं देती है। इसमें कुछ भी अवांछित नहीं है और यह वह तरीका है जिसका इस्तेमाल अमीरों ने हमेशा अपने हितों के बचाव में किया है। अच्छी दीर्घकालिक कल्याण नीति एक कदम आगे की होगी।

Published / 2021-04-16 14:03:07
श्रमिक की उत्पादकता भी बढ़ायें लेबर कोड

एबीएन डेस्क। वर्तमान में देश में लगभग 40 श्रम कानून लागू हैं। सरकार ने इन्हें समेट कर 4 लेबर कोड में संकलित कर दिया है। इन नये कानूनों को एक अप्रैल से लागू होना था, जिसे सरकार ने चुनाव के कारण कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया है। चुनाव के बाद इन्हें शीघ्र ही लागू किये जाने की पूरी संभावना है। इन लेबर कोड को बनाने के पीछे सरकार की मंशा श्रम कानूनों को सरल करने की थी, जिससे कि देश के उद्यमियों के लिए श्रमिकों को रोजगार देना आसान हो जाए और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में अधिक संख्या में रोजगार उत्पन्न हो सकें। लेबर कोड के प्रावधानों में कुछ श्रमिकों के पक्ष में हैं तो कुछ उनके विपरीत हैं। जैसे यदि किसी श्रमिक को कोई आरोप लगाकर मुअत्तल किया जाता है तो अब व्यवस्था कर दी गयी है कि 90 दिन में उसकी जांच पूरी की जायेगी। पूर्व में ग्रेच्युटी कई वर्षों के बाद लागू होती थी, जिसे अब एक वर्ष के बाद लागू कर दिया गया है। अल्पकाल के लिए रखे गये श्रमिकों को अब वे सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी जो स्थाई श्रमिकों को उपलब्ध हैं। ये प्रावधान श्रमिकों के हित में हैं।इसके विपरीत उद्यमों को बंद करने अथवा श्रमिकों की छंटनी करने के लिए पूर्व में 100 से अधिक श्रमिकों को रोजगार देने वाली कम्पनियों के लिए सरकार से अनुमति लेनी जरूरी थी। अब इसे 300 से अधिक श्रमिकों को रोजगार देने वाली कम्पनियों पर लागू किया गया है। 100 से 300 श्रमिकों को रोजगार देने वाली कम्पनियों को सरकार से अनुमति लेने से मुक्त कर दिया गया है। यह श्रमिकों के विपरीत है। इस प्रकार नया लेबर कोड मिश्रित है। देखना यह है कि नये लेबर कोड से रोजगार उत्पन्न करने को कितना प्रोत्साहन दिया जाएगा? इसके लिए हमें समझना होगा कि उद्यमी द्वारा रोजगार किन परिस्थितियों में उत्पन्न किये जाते हैं। उद्यमी को सस्ता माल बनाना होता है, जिससे कि वह बाजार में अपना माल बेच सके। सस्ता माल बनाने के लिए जरूरी है कि वह उत्पादन में श्रम की लागत को कम करे। उसके लिए जरूरी है कि वह श्रम की उत्पादकता बढ़ाये, यानी एक श्रमिक से ही पूर्व की तुलना में अधिक उत्पादन कराए। जैसे एक श्रमिक पूर्व में 10 मीटर कपड़ा एक दिन में बुनाई करता था वही श्रमिक यदि अब 20 मीटर कपड़ा बुनाई करने लगे तो उद्यमी की उत्पादन लागत कम हो जाती है और वह बाजार में अपने सस्ते माल को बेच पाता है। लेकिन अधिक उत्पादन करने के कारण अब कम श्रमिकों की जरूरत पड़ती है। मान लीजिये पूर्व में उद्यमी प्रतिदिन 100 मीटर कपड़ा एक दिन में बेच पाता था और वह 10 मीटर प्रति श्रमिक की दर से 10 श्रमिकों को रोजगार देता था। उत्पादकता बढ़ाने के बाद उसी 100 मीटर कपड़े का उत्पादन करने के लिए अब 20 मीटर प्रति श्रमिक की दर से उसे केवल पांच श्रमिकों की जरूरत होगी। इस प्रकार सस्ते माल और रोजगार के बीच सीधा अन्तर्विरोध है। यदि माल सस्ता बनाते हैं तो रोजगार कम होते है। चीन का माडल इससे भिन्न था जो विशेष परिस्थितियों में लागू हुआ था। चीन ने श्रमिक की उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ अपने बाजार का भारी विस्तार किया। जैसे मान लीजिये पूर्व में चीन में एक श्रमिक 10 मीटर कपड़े की बुनाई करता था, उत्पादकता बढ़ाने के बाद वह 20 मीटर कपड़ा बुनने लगा। लेकिन इसी अवधि में चीन का बाजार 100 मीटर से बढ़कर 400 मीटर हो गया तो 400 मीटर कपड़े का उत्पादन करने के लिए बढ़ी हुई उत्पादकता के बावजूद 20 श्रमिकों की जरूरत पड़ेगी। 20 श्रमिक 20 मीटर कपड़ा प्रतिदिन बुनेंगे तब 400 मीटर कपड़े का उत्पादन होगा। इस प्रकार यदि बाजार का भारी विस्तार होता रहे तो श्रमिक की उत्पादकता के बढ़ने के साथ-साथ रोजगार भी बढ़ सकते हैं। लेकिन यह विशेष परिस्थिति थी जब चीन ने विश्व बाजार पर अपना प्रभुत्व बनाया था। यदि बाजार का तीव्र विस्तार न हो तो उत्पादकता बढ़ने के साथ-साथ रोजगार के बढ़ने की संख्या निश्चित रूप से घटेगी। कटु सत्य यह है कि यदि श्रम की उत्पादकता बढ़ाई जाती है तो सीमित बाजार होने के कारण रोजगार घटते हैं और यदि श्रम की उत्पादकता नहीं बढ़ाई जाती है तो उद्यमी के लिए श्रम के स्थान पर मशीन का उपयोग करना लाभप्रद हो जाता है और पुन: रोजगार में गिरावट आती है। इन दोनों कठिन विकल्पों के बीच हमें श्रम की उत्पादकता तो बढ़ानी ही पड़ेगी। यदि श्रम की उत्पादकता नहीं बढ़ाई जायेगी तो उद्यमी स्वचालित मशीनों का उपयोग करेगा और श्रमिक पूरी तरह बाजार से बाहर हो जाएगा। श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के दो प्रमुख उपाय हैं। एक यह कि उत्तम मशीनों का उपयोग किया जाये, जिससे कि उसी कुशलता के स्तर का श्रमिक अधिक उत्पादन कर सके। दूसरा यह है कि श्रमिक की कुशलता में विस्तार किया जाए। अक्सर उद्योगों में देखा जाता है कि श्रमिक पूरी तत्परता और मनोयोग से काम नहीं करते। वर्तमान श्रम कानून में व्यवस्था है कि यदि कोई उद्यमी श्रमिक को बर्खास्त करना चाहे तो उसे प्राकृतिक न्याय के अनुरूप उसकी सुनवाई करनी होती है और उसके बाद श्रम न्यायालय में उसका विवाद चलता है, जिस भय के कारण उद्यमी अक्सर श्रमिक को रखना ही नहीं चाहते। लेबर कोड ने श्रम कानून की इस बाधा को दूर नहीं किया है। पश्चिमी देशों में उद्यमी को छूट है कि वह अपनी मर्जी से श्रमिकों को रख सकता है अथवा बर्खास्त कर सकता है। इसलिए पश्चिमी देशों में उद्यमी के लिए कुशल श्रमिक को रखना और अकुशल श्रमिक को बर्खास्त करना, दोनों ही आसान हैं। श्रम कानून में इस दिशा में कोई सुधार नहीं किया गया है। इसलिए यह लेबर कोड नये रोजगार उत्पन्न करने में सहायक नहीं होगा। अपने देश के श्रमिक चीन आदि देशों के श्रमिकों की तुलना में अकुशल हैं और उनकी कुशलता में सुधार करने के लिए लेबर कोड असफल है। ऐसे में अपने देश में श्रम की उत्पादकता न्यून स्तर पर बनी रहेगी, उद्यमी अधिकाधिक मशीनों का उपयोग करते रहेंगे और हमारे श्रमिकों के रोजगार के अवसर घटते ही जायेंगे। इस दिशा में लेबर कोड में मूल चिन्तन बदलने की जरूरत है।

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